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जैनधर्म
से मालूम होता है कि यापनीय संघ में आवश्यक, छेदसूत्र, नियुक्ति, और दशवैकालिक आदि ग्रन्थोंका पठन-पाठन होता था, अर्थात् इन बातों में वे श्वेताम्बरोंके समान थे । श्वेताम्बर - मान्य जो आगमग्रन्थ हैं यापनीय संघ संभवतः उन सभीको मानता था, किन्तु उनके आगमोंकी बाचना श्वेताम्बर सम्प्रदायमें मानी जानेवाली वलभी वाचनासे शायद कुछ भिन्न थी । उनपर उसकी टीकाएँ भी हो सकती हैं जैसा कि अपराजित - सूरिकी दशवैकालिक सूत्रपर टीका थी । यह सम्प्रदाय बड़ा ही राज्यमान था । शिलालेखोंसे विदित होता है कि कदम्ब चालुक्य गंग राष्ट्रकूट और रट्ठवंशके राजाओंने इस संघको और इसके साधुओंको दान दिये थे । अनेक शिलालेखोंसे इस संघके गणों और गच्छोंका भी परिचय मिलता है। इस सम्प्रदायमें नन्दिसंघ नन्दिगच्छ प्राचीन तथा प्रमुख था । इस संघ के आचार्योंके नाम विशेषतः कीर्त्यन्त और नन्द्यन्त होते थे। नन्दिसंघ भी कई गणोंमें विभक्त था । इसके कई प्रभावशाली गण यथा पुन्नागवृक्ष मूलगण, बलहारिगण और कण्डूरगण मूलसंघमें शामिल कर लिये गये और नन्दिसंघको द्रविड़ संघ और पीछे मूलसंघने अपना लिया ।
शिलालेखोंसे प्रमाणित होता है कि यह संघ ४ थी से १०वों शताब्दी तक अच्छा संगठित था । १५वीं शताब्दी तक इसके जीवित रहने के प्रमाण मिलते हैं; क्योंकि कागवाड़ेके श० सं० १३१६ ( वि० सं० १४५१ ) के शिलालेखमें यापनीयसंघके धर्मकीर्ति और नागचन्द्रके समाधि लेखोंका उल्लेख है ।
४. कूर्चक संघ
कर्नाटक प्रान्त में पाँचवी शताब्दीके लगभग जैनोंका एक सम्प्रदाय कूर्चक नामसे था । कदम्बवंशी राजाओंके एक लेखमें यापनीय और निर्मन्थ सम्प्रदायोंके साथ इसका उल्लेख है । यथा - यापनीय निर्मन्थ कूर्चकानाम । सम्भवतया यह दिगम्बर