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सामाजिक रूप
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सम्प्रदायका ही एक भेद था । कदम्ब मृगेश वर्माने अन्य दो जैन सम्प्रदायोंके साथ इसे भी दान दिया था। दूसरे एक लेख - में इस संघके अवान्तर वारिषेणाचार्य संघका उल्लेख है । यह वारिषेणाचार्य संघ कूर्च कोंका ही एक भेद था ।
५. अर्द्धस्फालक सम्प्रदाय
श्री रत्ननन्दि आचार्य ने अपने भद्रबाहु चरित्रमें अर्द्धस्फालक सम्प्रदायका उल्लेख किया है। उन्होंने लिखा है कि यह अद्भुत अर्द्धस्फालक मत कलिकालका बल पाकर जलमें तेलकी बूँदकी तरह सब लोगों में फैल गया । उन्होंने इस मतको श्रुतकेवली भद्रबाहु के समय में द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष के अन्तमें उत्पन्न हुआ बतलाया है और अन्तमें लिखा है कि बल्लभीपुर में पूरी तरहसे श्वेतवस्त्र ग्रहण करनेके कारण विक्रम राजाके मृत्युकालसे १३६ वर्षके बाद श्वेताम्बरमत प्रसिद्ध हुआ । श्रीरत्ननन्दिके मतसे कुछ दिगम्बर मुनियोंने जब अपनी नग्नताको छिपानेके लिए खण्ड वस्त्र स्वीकार कर लिया तो उनसे अर्द्धस्फालक सम्प्रदाय उत्पन्न हुआ | और अर्द्धस्फालक सम्प्रदायसे ही श्वेताम्बर सम्प्रदायकी उत्पत्ति हुई ।
मथुराके कंकाली टीलेसे प्राप्त जैन पुरातत्त्व में कुछ ऐसे आयागपट प्राप्त हुए हैं, जिनमें जैन साधु यद्यपि नग्न अंकित हैं परन्तु वे अपनी नग्नताको एक वस्त्रखण्डसे छिपाये हुए हैं प्लेट नं० २२ में कण्ह श्रमणका चित्र अंकित हैं, उनके बायें हाथकी कलाई पर एक वत्रखण्ड लटक रहा है जिसे आगे करके वे अपनी नग्नताको छिपाये हुए हैं । यही अर्द्धस्फालक सम्प्रदायका रूप जान पड़ता है ।
१. “अतोऽर्द्धफालकं लोके व्यानसे मतमद्भुतम् । कलिकालबलं प्राप्य सलिले तैलविन्दुवत् ||३०४ ||”