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जैनधर्म से तो आगे चलकर मुनि होते हैं। अतः जैन गृहस्थका आचार एक प्रकारसे मुनि-आचारका नांवरूप है, उसीके ऊपर आगे चलकर मुनि-आचारका भव्य प्रासाद खड़ा होता है । अतः सच्चा जैन गृहस्थ एक आदर्श गृहस्थ होना है।
जनशास्त्रों में लिग्वा है कि गृहस्थधर्मका पालन वही कर सकता है जो न्यायसे धन कमाना है. गुणी जनांका आदर करना है, मीठी वाणी बोलना है. धर्म, अर्थ और कामका सेवन इम रीनिस करना है कि एक दूसरमें बाधक नहीं होता, लज्जाशील होता है. जिसका आहार और विहार दोनों युक्त होते हैं, सदा सज्जनोंकी संगनिमें रहता है, और जो शास्त्रज्ञ, कृतज्ञ, दयालु, पापभीम और जितेन्द्रिय होना ह । जिस गृहस्थ में इतने गुण हों उसके आदर्श गृहम्थ होनेमें सन्देह ही क्या है ? यदि ऐसे सद्गृहस्थ होने लगें तो यही पृथिवी म्वगसे भी बढ़कर हो सकती है। किन्तु मनुष्यकी भोलिप्सा और स्वार्थपरक वृत्तियाँ इतनी प्रबल हानी जाती हैं कि वह अपने इन सभी सदगुणोंको भुला बैठा है और उसका आराध्य केवल काम
और अर्थ रह गया है। यदि वह धर्माचरण भी करता है नो उसीकी पूर्तिक लिय करता है । न उसे न्यायका विचार है और न अन्यायका । न उसे दयासे प्रेम है और न पापस भय । वह इन्द्रियोंका दास बना हुआ है और उसीकी तुष्टि के लिये सब कुछ करता रहता है, अस्तु,
जैन गृहस्थके आठ मूल गुण होते हैं-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहका एकदेश पालन तथा मांस, मधु और मदिराका सर्वथा त्याग । मूल जड़को कहते हैंये आगे बढ़नेके लिये जड़रूप हैं इसलिये इन्हें मूलगुण कहते हैं । इनके बिना कोई जैन श्रावक नहीं कहा जा सकता।
१. अहिंसाणुव्रत जैनसिद्धांतमें जीव दो प्रकारके बतलाये हैं स्थावर और त्रस । जो जीव चलते फिरते हैं जैसे मनुष्य, पशु, चोंटी, लट,