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जैनधर्म
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जीवका स्वभाव ऊपरको जानेका हैं जैसा कि आगकी लपटें स्वभाव से ऊपरको ही जाती हैं। अतः अपने उस स्वभाव के कारण ही मुक्त जीव ऊपरको जाता है। लोकके ऊपर अग्रभागमें मोक्ष स्थान है जिसे जैन सिद्धान्तमें सिद्धशिला भी कहते हैं । सब मुक्त जीव मुक्त होनेके बाद ऊर्ध्वगमन करके इस मोक्षस्थान में विराजमान हो जाते हैं । जैन सिद्धान्तमें मोक्षस्थानकी मान्यता भी अन्य सब दर्शनोंसे निराली है । इसका कारण यह है कि वैदिक दर्शनों में आत्माको व्यापक माना गया है अतः उन्हें मोक्षस्थानके सम्बन्ध में विचार करनेकी आवश्यकता नहीं थी । बौद्धदर्शनमें आत्मा कोई स्वतंत्र तत्त्व नहीं है, अतः उनके लिए मोक्षस्थानकी चिन्ता ही व्यर्थ थी । किन्तु जैनदर्शन आत्माको एक स्वतंत्र तत्व माननेके साथ व्यापक न मानकर प्राप्त शरोरके बराबर मानता है । इसलिए उसे मोक्षस्थानके सम्बन्धमें विचार करना पड़ा । वह कहता है कि मुक्त जीव बन्धन से छूटकर ऊर्ध्वगमन करता है और लोकके अग्रभागमें पहुँचकर स्थिर हो जाता है, फिर वहाँसे लौटकर नहीं आता ।
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जैन शास्त्रों में एक मण्डली मतका उल्लेख पाया जाता है, जो मुक्त जीवोंका उर्ध्वगमन मानता है । किन्तु उसने मोक्षस्थानके सम्बन्धमें कोई विचार प्रकट नहीं किया। वह कहता है कि मुक्त जीव अनन्तकाल तक ऊपरको चला जाता है, उसका कभी भी अवस्थान नहीं होता । ऊर्ध्वगमन माननेपर भी क्या मण्डलीको मोक्षस्थानकी चिन्ता न हुई होगी ? किन्तु जब उसके तार्किक मस्तिष्क में यह तर्क उत्पन्न हुआ होगा कि मुक्त जीव ऊपरको जाकरके भी एक निश्चित स्थानपर ही क्यों रुक जाता है, आगे क्यों नहीं जाता ? तो सम्भवतः उसे इसका कोई समुचित उत्तर न सूझा होगा और फलतः उसने सदा ऊर्ध्वगमन मान लिया होगा, किन्तु जैनधर्म में गति और स्थिति में सहायक धर्म और अधर्म नामके द्रव्योंको स्वीकार करके इस शंकाका ही मूलोच्छेद कर दिया गया । यह दोनों