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चारित्र
२३३ चाहिये। इस प्रकार प्रभातमें दो घड़ीतक प्रातःकालीन कृत्य करके फिर साधुको स्वाध्याय करना चाहिये। उसके बाद भोजन करनेकी इच्छा होनेपर शास्त्रोक्त विधिके अनुसार भोजन ग्रहण करना चाहिये । और भोजन समाप्त होने पर अगले दिनतकके लिए भोजनका त्याग कर देना चाहिये। फिर लगे हुए दोषोंका शोधन करके मध्याह्नके बाद दो घड़ी बीननेपर स्वाध्याय करना चाहिये। जब दिन दो घड़ी बाकी रहे तो स्वाध्याय समाप्त करके और दिन भरके दोपोंका परिमार्जन करके आचार्यकी वन्दना करनी चाहिये । फिर देवबन्दना करके दो घड़ी रात जानेपर स्वाध्याय प्रारम्भ करना चाहिये और आधी रात होने में दो घड़ी बाकी रह जानेपर समाप्त कर देना चाहिये । फिर चार घड़ीतक भूमिमें एक करवटस शयन करना चाहिये । यह साधुका नित्य कृत्य है। नैमित्तिक कृत्य मूलाचार, अनगारधर्मामृत आदि ग्रन्थोंसे जाना जा सकता है।
साधुके सम्बन्धमें और जो बातें जैन शास्त्रों में लिखी हैं उनमें से कुछ इस प्रकार हैं___ साधु जव धूपसे छायामें या छायासे धूपमें जाते हैं तो मोरपंखी पीछीसे अपने शरीरको साफ करके जाते हैं। इसी तरह जब बैठते हैं तो उस स्थानको पीछीसे साफ करके बैठते हैं जिससे कोई जीव जन्तु उनके नीचे दबकर मर न जाय । जिस घरमें पशु बँधे हों या कोई बुरा कार्य होता हो उस घरमें साधुको भोजनके लिए नहीं जाना चाहिये तथा घरके अन्दर जाकर बार-बार दाताकी ओर नहीं देखना चाहिये । यदि संघमें कोई साधु बीमार हो जाये तो उसकी कभी भी उपना नहीं करना चाहिये । अकेलं साधुको कहीं नहीं जाना चाहिये, जब कहीं जाये तो दूसरे साधुके साथ ही जाना चाहिये । गुरुको देखते ही उठ खड़े होना चाहिये और उन्हें नमस्कार करना चाहिये। गुरु जो वस्तु हैं उसे अत्यन्त आदरके साथ दोनों हाथोंसे लेना चाहिये और लेकर पुनः नमस्कार करना