________________
२३४
जैनधर्म
चाहिये । जिन्होंने दीक्षा दी हो, जो पढ़ाते हों, प्रायश्चित्त देते हों और समाधिमरण कराते हों वे सब गुरु होते हैं।
प्राण चले जानेपर भी साधुको दीनता नहीं दिखलाना चाहिये। भूखसे शरीरका कृश और मलिन होना साधुके लिए भूषण है, पवित्र मनवाला साधु उससे लजाता नहीं है । जिसका मन शुद्ध है उसे ही शुद्ध कहा जाता है । मन शुद्धिके बिना स्नान करनेपर भी शुद्धि नहीं होती । साधुको चित्रमें अंकित भी स्त्रीका स्पर्श नहीं करना चाहिये। जिनका स्मरण भी खतरनाक है उनको स्पर्श करना तो दूरकी बात है । साधुको रात्रिमें ऐसे स्थानपर नहीं सोना चाहिये जहाँ स्त्रियाँ रहती हों । न साध्वियों के साथ मार्गमें चलना ही चाहिये । तथा एकाकी साधुको किसी एकाकी स्त्रीके साथ न गपशप करनी चाहिये, न भोजन करना चाहिये और न बैठना ही चाहिये । जहाँ वास करनेसे साधुका मन चंचल हो उस देशको छोड़ देना चाहिये । जो पाँचों प्रकारके वखसे रहित हैं वे ही निर्ग्रन्थ कहलाते हैं, अन्यथा सोना-चाँदी वगैरह कौन साधु रखता है ?
परिग्रहकी बुराइयाँ बतलाते हुए एक जैनाचार्यने ठीक ही लिखा है
"परिग्रहवां सर्वां भयमवश्यमापद्यते ।
प्रकोपपरिहिसने च परुषानृतव्याहृती ।
ममत्वमथ चोरतो स्वमनसश्च विभ्रान्तता
कुतोहि कलुषात्मनां परमशुक्ल सद्ध्यानता ॥ ४२ ॥” पात्रके ० स्तो० |
'परिग्रहवालोंको चोर आदिका भय अवश्य सताता है । चोरी हो जानेपर गुस्सा और मार डालनेके भाव होते हैं, कठोर और असत्य वचन बोलता है । ममत्व होनेसे मन भ्रान्त हो जाता है । ऐसी स्थितिमें कलुषित आत्मावाले साधुओंको उत्कृष्ट शुक्ल ध्यान कैसे हो सकता है ।'
अतः साधुको बिल्कुल अपरिग्रही होना चाहिये ।