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चारित्र
२३५ ऊपर साधुको जो चर्या बतलायी है उससे स्पष्ट है कि जैनधर्ममें साधु जीवन बड़ा कठोर है। जो संसार, शरीर और भोगोंकी असारताको हृदयंगम कर चुके हैं, वे ही उसे अपना सकते हैं। सुखशील मनुष्योंकी गुजर उसमें नहीं हो सकती। जैन साधुका जीवन बिताना सचमुच 'तलवारकी धारपै धावनो' है। आजकलके सुखशील लोगोंको साधु जीवनकी यह कठोरता सम्भवतः सह्य न हो और वे इसे व्यर्थ समझें। किन्तु उन्हें यह न भूल जाना चाहिये कि आजादी प्राप्त करना कितना कठिन है ? जिस देशपर विदेशी शक्ति प्रभुता जमा बैठती है, वहाँसे उसे निकालना कितना कठिन होता है यह हम भुक्तभोगी भारतीयोंसे छिपा नहीं। फिर अगणित भवोंसे जो कर्मबन्धन आत्मासे बंधे हुए हैं उनसे मुक्ति सरलतासे कैसे हो सकती है ? शरीर और इन्द्रियाँ आत्माके साथी नहीं हैं किन्तु उसको परतंत्र बनाये रखनेवाले कमोंके साथी हैं । जो उन्हें अपना समझकर उनके लालन-पालनको चिन्ता करता है वह कर्मोकी जंजीरोंको और दृढ़ करता है। इनकी उपमा अंग्रेजी शासनके उन प्रबन्धकोंसे की जा सकती है जिन्हें जनताको जान-मालका रक्षक कहा जाता था किन्तु जो अवसर मिलते ही आँखें बदलकर भक्षक बन जाते थे। अतः अपना काम निकालने भरके लिए ही इनकी अपेक्षा करनी चाहिये और काम निकल जानेपर उन्हें मुँह नहीं लगाना चाहिये। यही दृष्टिकोण साधुकी चर्या में रखा गया है । जैन सिद्धान्तका यह भी आशय नहीं है कि दुःख उठानेसे ही मुक्ति मिलती है। गुस्से में आकर स्वयं कष्ट उठाना या दूसरोंको कष्ट देना बुरा है। किन्तु संसारकी वास्तविक स्थितिको जानकर उससे अपनेको मुक्त करनेके लिए मुक्तिके मार्गमें पैर रखनेपर दुःखोंकी परवाह नहीं की जाती। जैसा कि लिखा है
'न दुःखं न सुखं यद्वद् हेतुर्दृष्टश्चिकित्सिते । चिकित्सायाँ तु युक्तस्य स्याद् दुःखमथवा सुखम् ।।