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जैनधर्म
न दुःखं न सुखं तद्वत् हेतुर्मोक्षस्य साधने । ___ मोक्षोपाये तु युक्तस्य स्याद् दुःखमथवा सुखम् ॥' सवार्थ०॥
अर्थात्-'जैसे रोगसे छुटकारा पानेमें न दुःख ही कारण है और न सुख ही कारण है, किन्तु चिकित्सामें लगनेपर दुःख हो अथवा सुख हो। उसी तरह मोक्षका साधन करनेमें न दुःख ही कारण है और न सुख ही कारण है। किन्तु मुक्तिका उपाय करनेपर चाहे दुःख हो या सुख हो, उसकी परवाह नहीं की जातो।' ___ अतः साधुकी चर्याकी कठोरता साधुको जान बूझकर दुःखी करनेके उद्देश्यसे निर्धारित नहीं की गयी है किन्तु उसे सावधान, कष्टसहिष्णु और सदा जागरूक रखनेके लिए की गयी है। ____ कुछ लोग साधु के स्नान और दन्तधावन न करनेको बुरी निगाहसे देखते हैं, किन्तु उनके न करनेपर भी जैन साधुकी शारीरिक स्वच्छता दर्शनीय होती है। कुछ लोग कहते हैं कि जैन साधुओंके दातोंपर मल जमा रहता है और उसपर यदि पैसा चिपक जाये तो उसे उत्कृष्ट साधु कहा जाता है। किन्तु यह सब दन्तकथा मात्र हैं, दाँतोंपर मैल तभी जमता है जब आँतोंमें मल भरा रहता है। जैन साधु एक बार में परिमित और हल्का आहार लेते हैं अतः न आँतोंमें मल रहता है और न दाँतोंपर वह जमता है। एकबार किसीने लिखा था कि जैन साधु अपने पास एक झाड़ रखते हैं उससे वे चलते समय आगे झाड़कर चलते हैं। यह भी कोरी गप्प ही है। मोर पंखकी पीछी शरीर और बैठनेका स्थान वगैरह शोधनेमें काम आती है, वह झाड़ नहीं है। ये सब द्वषी अथवा नासमझ लोगोंकी कल्पनाएँ हैं। जैन साधुका शरीर अस्वच्छ हो सकता है, किन्तु उसकी आत्मा अतिस्वच्छ होती है ।
८. गुणस्थान जैन सिद्धान्तमें संसारके सब जीवोंको चौदह स्थानोंमें विभाजित किया है। उन स्थानोंको गुणस्थान कहते हैं। गुण