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________________ २६८ जैनधर्म अधिकार सिद्ध हो गया, तब आगे किसी प्रकारका झगड़ा न हो सके इसके लिए श्वेताम्वरसंघने यह निश्चय किया कि अबसे जो नयी प्रतिमाएँ बनवायी जाँय, उनके पादमूलमें वस्त्रका चिह्न बना दिया जाय । यह सुनकर दिगम्बरियोंको क्रोध आ गया और उन्होंने अपनी प्रतिमाओंको स्पष्ट नग्न बनाना शुरू कर दिया। यही कारण है कि सम्प्रति राजा आदिकी वनवायी हुई प्रतिमाओंपर वस्त्रलांछन नहीं है और स्पष्ट नग्नत्व भी नहीं है।" इससे यह बात अच्छी तरह सिद्ध होती है कि पहले दोनोंकी प्रतिमाओंमें भेद नहीं था। परन्तु अब तो दोनोंकी प्रतिमाओंमें इतना अन्तर पड़ गया है कि उसे देखनेसे आश्चर्य होता । पं० बेचरदासजीने लिखा है “यह सम्प्रदाय (श्वे० सम्प्रदाय ) कटोरा कटिसूत्रवाली मूर्तिको ही पसन्द करता है उसे ही मुक्तिका साधन समझता है। वीतराग संन्यासी-फकीरकी प्रतिमाको जैसे किसी बालकको गहनोंसे लाद दिया जाता है उसी प्रकार आभूषणोंसे शृंगारित कर उसकी शोभामें वृद्धि की समझता है। और परमयोगी वर्द्धमान या इतर किसी वीतरागकी मूर्तिको विदेशी पोशाक जाकिट, कालर, घड़ी वगैरहसे सुसज्जित कर उसका खिलौने जितना भी सौन्दर्य नष्ट करके अपने मानवजन्मकी सफलता समझता है।" ___ इस तरह परस्परकी खींचातानी के कारण जैनसंघमें जो भेद पड़ा वह भेद उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया और उसीके कारण आगे जाकर दोनों सम्प्रदायोंमें भी अनेक अवान्तर पन्थ उत्पन्न होते गये। १. इस तरहके अन्य प्रमाणोंके लिये 'जैन साहित्य और इतिहास' पृ० २४१ से आगे देखें। २. 'जैन साहित्यमें विकार'
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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