________________
चारित्र
१८१ पोपणके लिये कोई न कोई उद्योग और कुछ न कुछ आरम्भ अवश्य करना पड़ता है, उसके विना उसका निवाह नहीं हो सकता । किन्तु उसे ऐसा ही उद्योग और आरम्भ करना चाहिये जिसमें दूसरे प्राणियोंको कमसे कम कष्ट पहुंचनेकी संभावना हा । इसी तरह विरोधी हिंसासे भी गृहस्थ नहीं बच सकता। यद्यपि वह स्वयं किसीसे अकारण विरोध पैदा नहीं करता, किन्तु यदि कोई उसपर आक्रमण करे तो उससे बचने के लिय वह बगवर प्रयत्न करेगा। आक्रमणकारीका सामना न करके डरकर घर में छिप जाना अहिंसाकी निशानी नहीं है। उम मानसिक हिंसास तो प्रत्यक्ष हिंसा कहीं अच्छी है। जैनशानमें तो स्पष्ट लिखा है
'नापि स्पष्टः मुदृष्टियः स मप्तभि भर्मनाक् ।'–पञ्चाध्यायी।
'जैनधर्मका जो सच्चा श्रद्धानी है वह सात प्रकार के भयांसे सर्वथा अछूता रहता है।'
जनधर्म के सभी तीर्थङ्कर त्रियवंशी थे। उन्होंने अपने जीवन में अनेक दिग्विजयं की थीं । मौर्व-सम्राट चन्द्रगुप्त, महामेघवाहन सम्राट् खारवेल, वीर सेनापनि चामुण्डराय आदि जैन वीर योद्धा नो भारतीय इतिहासके उज्ज्वल रत्न हैं । वस्तुतः जैनधर्म उन क्षत्रियोंका धर्म था जो युद्धस्थलमें दुइमनका सामना तलवारसे करना जानते थे और उसे क्षमा करना भी जानते थे। जैन श्नत्रियोंके लिये आदेश है
"यः शस्त्रवृत्तिःसमरे रिपुः स्याद् यः कण्टको वा निजमण्डलस्य । अस्त्रागिा तत्रैव नृपाः क्षिपन्ति न दीनकानीनगुभाशयेषु ॥"
यशस्तिलक. पृ० ६६ 'अस्त्र शस्त्रसे सुसज्जित होकर युद्धभूमिमें जो शत्रु बनकर आया हो. या अपने देशका दुश्मन हो उसीपर राजागण अस्त्रप्रहार करते हैं, कमजोर, निहत्थे कायरों और सदाशयी पुरुषोंपर नहीं।'