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जैनधर्म यही जैनी राजनीति है। अनः जो लोग अहिंसा धर्मपर कायरताका लाञ्छन लगाते हैं. वे भ्रममें हैं। अहिंसामें तो कायरताके लिय स्थान ही नहीं है। अहिंसाका तो पहला पाठ ही निर्भयता है। निर्भयना और कायरता एक ही स्थानमें नहीं रह सकनी । झोर्च आत्माका एक गुण हैं, जब वह आत्माक ही द्वारा प्रकट किया जाता है नव वह अहिंसा कहलाता है और जब वह शरीरकं द्वारा प्रकट किया जाता है तब वीरता। जैनधमकी अहिंसा या तो वीरताका पाठ पढ़ाती है या क्षमाका । आपत्तिकालमें गृहस्थका कर्तव्य बतलाते हुए एक जैनाचार्यने लिखा है
"अर्थादन्यतमम्योच्चद्दिष्टेषु स दृष्टिमान् । सत्सु घोरोपमर्गेषु तत्परः स्यात्तदत्यये ।।८१२॥ यद्वा न ह्यात्ममामर्थ्य यावन्मंत्रासिकशकम् । तावद् दृष्टुं च श्रोतुं च तद्बाधां सहते न सः ॥८१३॥"-पञ्चाध्या०
अर्थात्-'धर्मके आयतन जिन मन्दिर, जिन बिम्ब आदिमेंसे किसीपर भी आपत्ति आ जानेपर सच्चे जैनीको उसे दूर करनेके लिये सदा तत्पर रहना चाहिये। अथवा जबतक उसके पास आत्मबल. मंत्रबल, तलवारका बल और धनबल है, तबतक वह उस आपत्तिको न तो देख ही सकता है और न सुन ही सकता है।'
जो कुछ धर्मपर आई हुई आपत्तिके प्रतीकारके बारे में कहा गया है वही देशपर आई हुई आपत्तिके बारेमें भी समझना चाहिये । अतः जो लोग ऐसा समझते हैं कि जैनधर्मका अनुयायी मेनामें भर्ती नहीं हो सकता या युद्ध नहीं कर सकता, वे भ्रममें हैं। आजकल जैनधर्मके माननेवाले अधिकांश वैश्य हैं। और सदियोंकी दासता और उत्पीड़नने उन्हें भी कायर
और डरपोक बना दिया है। यह अहिंसाधर्मका दोष नहीं है । जबतक भारतपर अहिंसाधर्मी जैनोंका राज्य रहा तबतक