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जैनधर्म
तो पूजा भी करता है। पूजामें सबसे पहले जलसे मूर्तियोंका अभिषेक किया जाता है। कहीं कहीं दूध, दही, घी, इक्षुरस और सर्वोपधी रससे भी अभिषेक करनेकी पद्धति है। अभिषेकके पश्चात् पूजन किया जाता है। यह पूजन जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप और फल इन आठ द्रव्योंसे किया जाता है । एक एक पद्य बोलते जाते हैं और नम्बरवार एक एक द्रव्य चढ़ाते जाते हैं । द्रव्य चढ़ाते समय द्रव्य चढ़ानेका उद्देश्य बोलकर द्रव्य चढ़ाते हैं। यथा- मैं जन्म, जरा और मृत्युके विनाशके लिये जल चढ़ाता हूँ । अर्थात् जैसे जलसे गन्दगी दूर हो जाती है वैसे ही मेरे पीछे लगे हुए ये रोग धुलकर दूर हो जावें । मैं संसाररूपी सन्तापकी शान्तिके लिये चन्दन चढ़ाता | २ | मैं अक्षय पद (मोक्ष) की प्राप्तिके लिये अक्षत चढ़ाता हूँ | ३ | मैं कामके विकारको दूर करनेके लिये पुष्प चढ़ाता हूँ । ४ । मैं क्षुधारूपी रोगको दूर करनेके लिये नैवेद्य चढ़ाता हूँ । ५ । मैं अज्ञानरूपी अन्धकारको दूर करनेके लिये दीप चढ़ाता हूँ । ६ । मैं आठों कर्मोंको जलानेके लिये धूप चढ़ाता हूँ । ७ । यह धूप अग्निमें चढाई जाती है। मैं मोक्षफलकी प्राप्तिके लिये फल चढ़ाता हूँ । ८ । एक एक करके आठों द्रव्य चढ़ानेके बाद आठों द्रव्योंको मिलाकर चढ़ाया जाता है उसे 'अर्घ्य' कहते हैं । यह भी अनर्घ अर्थात् अमूल्यपदकी प्राप्तिके उद्देश्यसे चढ़ाया जाता है ।
इस प्रकार पूजाका उद्देश्य भी अपने विकारों और विकारोंके कारणोंको दूर करके चरम लक्ष्य मोक्षकी प्रामि ही रखा गया है । पूजाके दो भेद किये गये हैं- द्रव्यपूजा और भावपूजा । शरीर और वचनको पूजनमें लगाना द्रव्यपूजा है और उसमें मनको लगाना भावपूजा है। शरीरको लगानेके लिये द्रव्य रखे गये हैं, जिससे हाथ वगैरहका उपयोग उनके चढ़ाने में ही होता रहता है। और वचनको उसमें लगानेके लिये पद्य रखे गये हैं। जिन्हें पढ़ पढ़ करके द्रव्य चढ़ाया जाता है । इस तरह मनुष्यका