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सिद्धान्त
१२६ शरीर और वचन पूजनमें रहनेपर भी यदि उसका मन उसमें न रम रहा हो तो वह पूजन बेकार ही है क्योंकि बिना भावके कोई क्रिया फलदायक नहीं होती। जैसा कि कल्याणमन्दिरस्तोत्रमें कहा भी है'आणितोऽपि महितोऽपि निरीक्षतोऽपि
नूनं न चेतसि मया विधृतोऽसि भक्त्या । जातोऽस्मि तेन जनवान्धव! दुःखपात्रं ।
___यस्मात् क्रियाः प्रतिफलन्ति न भावशून्याः ॥३८॥' 'हे जनबन्धु ! तुम्हारा उपदेश सुनकर भी, तुम्हारी पूजा करके भी और तुम्हें वारम्बार देखकर भी अवश्य ही मैंने भक्तिपूर्वक तुम्हें अपने हृदयमें स्थापित नहीं किया। इसीसे मैं दुःखोंका पात्र बना; क्योंकि भावशून्य क्रिया कभी भी फलदायी नहीं होती।'
अतः द्रव्य पूजाके साथ-शारीरिक और वाचनिक पूजाके साथ साथ-भावपूजाका-मानसिक पूजाका होना आवश्यक है। किन्तु भावपूजा ऊपर कहे गये आठ द्रव्योंके बिना भी हो सकती है । द्रव्य तो मन, वचन और कायको लगानेके लिये एक आलम्बनमात्र है।
इस प्रकार जैनमूर्तिका स्वरूप और उसकी पूजाविधि बतलाकर उसके उद्देश्यपर एक दृष्टि डालना आवश्यक है।
जैनधर्ममें बतलाया है कि दुनियामें प्रत्येक वस्तुका चार रूपसे व्यवहार होता देखा जाता है-एक नामरूपसे, दूसरे स्थापनारूपसे, तीसरे द्रव्यरूपसे और चौथे भावरूपसे । उदाहरणके लिये हम राजाको लेते हैं। राजा शब्दका व्यवहार चार रूपसे देखा जाता है। एक तो बहुतसे लोग अपने बच्चोंका राजा नाम रख लेते हैं। वे बच्चे नामसे राजा कहलाते हैं। दूसरे, राजाके अभावमें राजकार्य चलानेके लिये किसीको उसका प्रतिनिधि मानकर राजाकी ही तरह उसका आदर