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जैनधर्म
सत्कार होता देखा जाता है । जैसे, भारतके वायसराय राजाके प्रतिनिधिके रूपमें राजाकी ही तरह माने जाते थे । यह स्थापनाकी अपेक्षा राजा कहे जाते थे । अर्थात् वे वास्तव में राजा नहीं थे किन्तु स्थानापन्न थे। तीसरे, जो राजपुत्र आगे राजा होने वाला है या जो राजा गद्दीसे उतार दिया गया है। उन्हें भी राजा साहब कहते हुए देखा जाता है । वे द्रव्यकी अपेक्षा राजा कहे जाते हैं। चौथे, राज्यासनपर विराजमान वास्तविक राजा तो राजा है ही । वह भावकी अपेक्षा राजा है । इसी तरह तीर्थकर भगवानका भी चार रूपसं व्यवहार होता है ।
जब कोई तीर्थङ्कर मोक्ष चला जाता है तो उनकी मूर्तियाँ बनवाकर और उनमें उस तीर्थङ्करकी स्थापना करके उसका उसी तरह से आदर सत्कार आदि किया जाता है जिस तरह वास्तविक तीर्थङ्करका आदर सत्कार होता था । कोई भी पापाण या धातुकी बनी हुई उन मूर्तियोंको ही तीर्थङ्कर परमात्मा नहीं मानता, किन्तु हमारे तीर्थङ्कर इसी प्रकार के प्रशान्तात्मा, वीतरागी तथा जितेन्द्रिय योगी होते थे, पूजक और दर्शकका यही भाव रहता है । वह मूर्तिके द्वारा मूर्तिमानकी उपासना करता है । मूर्तिको देखते ही उसे मूर्तिमानका स्मरण हो आता है, और स्मरण आते ही उनके पुनीत जीवनको एक झलक उसकी दृष्टि में घूम जाती है । जो लोग मूर्ति पूजाके विरोधी हैं उन्हें भी हम अपने धर्मग्रन्थोंका आदर सत्कार करते हुए पाते हैं । वास्तव में वे धर्मग्रन्थ कागज और स्याहीसे बने हुए हैं । किन्तु कागज और स्याहीका कोई आदर नहीं करता, बल्कि उन कागजों के ऊपर मनुष्यके हाथसे बनाये गये अक्षरोंमें जो उस महापुरुषका ज्ञान अंकित है उसका आदर किया जाता है । अतः जिस प्रकार ईश्वरीय ज्ञानके स्मरणके लिये मनुष्य अपने हाथोंसे कागजपर अक्षरोंकी मूर्तियाँ बनाकर उनकी विनय करता है, उसी प्रकार ईश्वरीय रूपको स्मरण करनेके लिये कलाकार मूर्तिकी प्रतिष्ठा