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________________ सिद्धान्त १२७ हो, इधर उधर न देखते हुए, स्थिर मनसे अपनी नाकके अग्रभागपर दृष्टि रखकर प्रशान्त आत्मा, निर्भय हो, ब्रह्मचर्य व्रतमें स्थित होकर तथा मनको वशमें करके मेरेमें मनको लगा । जैनमूर्ति की भी बिल्कुल ऐसी ही मुद्रा होती है। उसकी दृष्टि नाकके अग्र भागपर रहती है | शरीर, सिर और गर्दन एक सोधमें रहते हैं। पद्मासनमें बाई हथेलीके ऊपर दाईं हथेली खुली होती है और खड्गासनमें दोनों हाथ जानुतक लटके रहते हैं। चेहरेपर शान्ति, निर्भयता और निर्विकारता खेलती रहती है | शरीरपर विकारको ढाकनेके लिये न कोई आवरण होता है और न सौंदर्यको चमकानेके लिये कोई आभरण रहता है । न हाथमें कोई अस्त्र-शस्त्र हो होता है । भगवत्गोतामें कही हुई जिस योगमुद्रासे योगी निर्वाण लाभ करते हैं, वही मुद्रा जैनमूर्तिमें अंकित रहती है। देखनेवालेको यही प्रतीत होता है कि वह किसी प्रशान्तात्मा योगीकी मूर्तिका दर्शन कर रहा है । न वहाँ राग है और न वैर-विरोध । सिद्धोंकी भी मूर्ति रहती है, किन्तु चूँकि सिद्ध परमेष्ठी देहरहित होते हैं, इसलिये पीतलकी चादरके बीच मेंसे मनुष्याकारको काटकर मनुष्याकाररूप खाली स्थान छोड़ दिया जाता है । आचार्य, उपाध्याय और साधुकी भी मूर्तियाँ कहीं कहीं पाई जाती हैं। इनकी मूर्तियोंमें साधुके चिह्न पीछी और कमण्डलु अंकित रहते हैं । सारांश यह है कि जैनमूर्ति जैनोंके आराध्य पचपरमेष्ठियोंकी प्रतिकृतिरूप होती हैं । जिनमन्दिर में जाकर देवदर्शन करना प्रत्येक जैन श्रावक और श्राविकाका नित्य कर्तव्य है । वहाँ वह यह विचारता है कि यह मन्दिर जिन भगवानका समवसरण - उपदेशसभा है, वेदीमें विराजमान जिनकी मूर्ति ही जिनेन्द्रदेव है, और मन्दिरमें उपस्थित स्त्री पुरुष ही श्रोतागण हैं। ऐसा विचार करके अच्छी-अच्छी स्तुतियाँ पढ़ते हुए जिन भगवान्‌को नमस्कार करके तीन प्रदक्षिणा देता है। और यदि पूजन करना होता है
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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