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जैनधर्म हैं । जो साधु साधुसंघके प्रधान होते हैं, पाँच प्रकारके आचारका स्वयं भी पालन करते हैं और अपने संघके अन्य साधुओंसे भी पालन कराते हैं, वे आचार्य कहे जाते हैं । जो साधु समस्त शास्त्रोंके पारगामी होते हैं, अन्य साधुओंको पढ़ाते हैं तथा सदा धर्मका उपदेश करनेमें लगे रहते हैं, उन्हें उपाध्याय कहते हैं । ___ जो विषयोंकी आशाके फन्देसे निकलकर सदा ज्ञान, ध्यान
और तपमें लीन रहते हैं, जिनके पास न किसी प्रकारकी परि. ग्रह होती है और न कोई ठगविद्या, मोक्षका साधन करनेवाले उन शान्त, निस्पृही और जितेन्द्रिय मुनिको साधु कहते हैं । ___ इन पाँच परमेष्ठियोंमेंसे अर्हन्त परमेष्ठीको मूर्ति जैनमन्दिरों में बहुतायतसे विराजमान रहती है। यद्यपि वे मूर्तियाँ जैनोंके २४ तीर्थङ्करोंमेंसे किसी न किसी तीर्थङ्करकी ही होती हैं, किन्तु होती अर्हन्त अवस्थाकी ही हैं, क्योंकि तीर्थङ्कर पदका वास्तविक कार्य धर्मतीर्थ प्रवर्तन है, जो अर्हन्त अवस्थामें ही होता है। तीर्थकर भी अर्हन्त अवस्थाको प्राप्त किये बिना पूर्ण वीतरागी और सर्वज्ञ नहीं होते और बिना वीतरागता और सर्वज्ञता के धर्मतीर्थका प्रवर्तन नहीं हो सकता । अतः धर्मतीर्थके प्रवर्तक जैन तीर्थकरोंकी मूर्तियाँ जैनमन्दिरोंमें बहुतायतसे पाई जाती हैं। ये मूर्तियाँ पद्मासन भी होती है और खड्गासन भी होती हैं, किन्तु होती सभी ध्यानस्थ हैं। एक आत्मध्यानमें लीन योगीकी जैसी आकृति होती है वैसी ही आकृति उन मूर्तियोंकी होती हैं। भगवद्गीतामें योगाभ्यासीका चित्रण करते हुए लिखा है
समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः । सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ॥१३॥ प्रशान्तात्मा विगतभी ब्रह्मचारिव्रते स्थितः ।
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः ॥१४॥' अ० ६ । भावार्थ-शरीर, सिर और गर्दनको सीधा रखकर, निश्चल