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सिद्धान्त
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श्वरवादी कहा जा सकता है। उसमें इस तरह के ईश्वरके लिये कोई स्थान नहीं है ।
८. उसकी उपासना क्यों और कैसे ?
जैनों में मूर्तिपूजाका प्रचलन बहुत प्राचीन है । सम्राट् खारवेलके शिलालेख में कलिङ्गपर चढ़ाई करके नन्दद्वारा अग्रजिन ( श्री ऋषभदेव ) की मूर्तिको ले जानेका और मगधपर चढ़ाई करके खारवेलके द्वारा उसे प्रत्यावर्तन करके लानेका उल्लेख मिलता है । इससे सिद्ध है कि आजसे लगभग अढ़ाई हजार वर्ष पूर्व राजघरानोंतक में जैनोंके प्रथम तीर्थङ्कर श्री ऋषभदेवकी मूर्तिकी पूजा होती थी । स्वामी दयानन्द तो जैन से ही मूर्तिपूजाका प्रचलन हुआ मानते हैं । यों तो भारतके प्रायः सभी प्राचीन धर्मो में मूर्तिपूजा प्रचलित है, किन्तु जैनमूर्तिके स्वरूप, उसकी पूजाविधि तथा उसके उद्देश्य में अन्यधर्मो से बहुत अन्तर है। जो उसे समझ लेगा वह मूर्तिपूजाको व्यर्थ कहने का साहस नहीं कर सकता |
जैनधर्म में पाँच पद बहुत प्रतिष्ठित माने गये हैं-अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु । इन्हें पंच परमेष्ठी कहते हैं । जैनोंके परमपवित्र पंचनमस्कार मंत्रमें इन्हों पंचपदोंको नमस्कार किया गया है। ये ही पाँच पद जैनधर्म में वंदनीय और पूजनीय हैं।
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जो चार घातिया कर्मोंको नष्ट करके अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्यरूप स्वचतुष्टयको प्राप्त करता है, उन परम औदारिक शरीरमें स्थित शुद्ध आत्माको अर्हन्त कहते हैं, जिनका विशेष वर्णन पहले किया जा चुका है। ये जीवन्मुक्त होते हैं। जो आठों कर्मोंस और शरीरसे भी रहित हो जाते हैं, लोकालोकके जानने और देखनेवाले, सिद्धालय में विराजमान उस पुरुषाकार आत्माको सिद्ध कहते हैं । और यह मुक्त होते