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जैनधर्म बार 'हिंद तत्त्वज्ञाननो इतिहास' के लेखक श्रीनर्मदाशंकर देवशंकर मेहताने 'जैनों और हिन्दुओंके बीच संस्कारोंका पारस्परिक आदान प्रदान' विषयपर गुजरातमें बोलते हुए कहा था-'भारतवर्षके मुख्य तीन धर्मों १ ब्राह्मणधर्म जिसे हिन्दु धर्म कहते हैं, २ बौद्धधर्म और ३ जैनधर्ममेंसे बौद्धधर्म अपनी जन्मभूमिसे निष्कासित हो गया और शेष दो धर्म किस कारणसे टिके रहे इसपर बहुतसे विद्वानोंने विचार किया है । मैंने भी अपनी बुद्धिके अनुसार विचार किया है। सब विचारोंके फलस्वरूप मैं यह समझा हूँ कि दूसरे धर्मके आचार और विचारोंको अपनेमें शामिल करनेकी अद्भुत शक्ति ब्राह्मणोंमें है। इस शक्तिके प्रभावसे वे दूसरोंकी वस्तुको अपना कर लेते हैं। जैसे कोई जबर बेल छोटेसे झाड़पर लगी हो तो उस झाड़के रसको चूसकर सर्वत्र फैल जाती है और आधार वृक्षका दर्शन भी न हो सके इस तरह उसे हृदयंगम कर लेती है, उसी तरह ब्राह्मणोंके आचार-विचारकी जटिलतामें जो कोई दूसरे धर्मका आचार विचार घुस जाता है वह ब्राह्मणोंका अपना बन जाता है और पीछे वह किसका था इसका निर्णय करना अशक्त हो जाता है। ब्राह्मणोंके इस आत्मसात करनेके बलके सामने बौद्धधर्म टिक नहीं सका। बौद्धधर्मने अपना स्वत्व और व्यक्तित्व जमानेके बदले ब्राह्मण धर्मके खंडन में अधिक यत्न किया । इससे दोनों धर्मोके अनुयायिय द्वेष
और निन्दाका भाव बढ़ गया। दूसरे, ब्राह्मणोंने उस धर्मके ग्रहण करने योग्य बातोंको अपना लिया और सामान्य अशिक्षित प्रजाको यह समझाया कि बौद्धधर्मका जो मुख्य सार कहा जाता है वह तो अपने वैदिकोंका अपना है । बौद्धोंने तो अपनेसे ही ले लिया है। ब्राह्मणोंके इस 'व्याप्तिजाल' को जानना हो तो नीचेके मुद्दोंपर विचार करें
१. भगवान बुद्धको विष्णुका अवतार मान लिया, उनका दयाधर्म वैष्णवों में समा गया।