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सिद्धान्त
१०५ द्रव्योंकी वजहसे ही जीव और पुद्गल लोकाकाशकी मर्यादासे बाहर नहीं जा सकते। जैनेतर दार्शनिकोंने आकाश द्रव्यको मानकर भी न तो लोकका कोई खास आकार माना और न आत्माको सक्रिय और शरीर परिमाणवाला ही माना। इसलिये उसका नियमन करनेके लिये उन्हें धर्म और अधर्म नामके द्रव्य माननेकी आवश्यकता भी प्रतीत नहीं हुई। किन्तु जैनधर्ममें वैसी व्यवस्था होनेसे आकाशसे जुदे, किन्तु उसके समकक्ष दो द्रव्य
और माने गये। इस तरह धर्म और अधर्मद्रव्यके निमित्तसे एक ही आकाश अखण्ड होकर भी दो रूप हो गया है। जितने आकाशमें सब द्रव्य पाये जाते हैं उतने आकाशको लोकाकाश कहते हैं और उससे अतिरिक्त जो शुद्ध अकेला आकाश है उसे अलोकाकाश कहते हैं। ___यहाँ यह बतला देना अनुचित न होगा कि जब जैनधर्म लोकाकाशको सान्त मानता है और उसके आगे अनन्त आकाश मानता है तब प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइस्टीन समस्तलोकको सान्त मानते हैं किन्तु उसके आगे कुछ नहीं मानते ; क्योंकि प्रो० एडिंगटनका कहना है कि पदार्थविज्ञानका विद्यार्थी कभी भी आकाशको शून्यवत् नहीं मान सकता ।
५. कालद्रव्य जो वस्तुमात्रके परिवर्तन करानेमें सहायक है उसे कालद्रव्य कहते हैं । यद्यपि परिणमन करनेकी शक्ति सभी पदार्थोंमें है, किन्तु बाह्य निमित्तके बिना उस शक्तिको व्यक्ति नहीं हो सकती। जैसे कुम्हारके चाकमें घूमनेकी शक्ति मौजूद है, किन्तु कीलका साहाय्य पाये बिना वह घूम नहीं सकता, वैसे ही संसारके पदार्थ भी कालद्रव्यका साहाय्य पाये बिना परिवर्तन नहीं कर सकते । अतः कालद्रव्य उनके परिवर्तनमें सहायक है।
१. Cosmology Old and New, P. 57.