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________________ १०४ जैनधर्म इस पर कहा जा सकता है कि मुक्तजीव ऊपर लोकके अग्रभागमें यदि नहीं ठहर सकेंगे तो न ठहरें। मात्र उन्हें ठहरानेके लिये ही तो दो द्रव्य नहीं माने जा सकते ? इसका उत्तर देते हुए आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं 'जम्हा उवरिमाणं सिद्धाणं जिणवरेहि पण्पत्तं तम्हा गमणट्ठाणं आयासे जाण णत्थित्ति ।।६३॥' -पंचास्ति । 'यतः भगवान जिनेन्द्रने मुक्त जीवोंका स्थान ऊपर लोकके अग्रभागमें बतलाया है, अतः आकाश गति और स्थितिका निमित्त नहीं है।' तथा'जदि हवदि गमणहेदू आगासं ठाणकारणं तेसि । पसजदि अलोगहाणी लोगस्स अंतपरिबुड्ढी ॥६४||-पंचास्ति । 'यदि आकाश जीव और पुद्गलोंके गमन और स्थितिमें भी कारण होता है तो ऐसा माननेसे लोककी अन्तिम मर्यादा बढ़ती है और अलोकाकाशकी हानि प्राप्त होती है, क्योंकि फिर तो जीव और पुद्गल गति करते हुए आगे बढ़ते जायँगे। और ज्यों-ज्यों वे आगे बढ़ते जायेंगे त्यों-त्यों लोक बढ़ता जायेगा और अलोक घटता जायेगा।' इसपर भी यह कहा जा सकता है कि लोककी वृद्धि और अलोकको हानि यदि होती है तो होओ, तो उसपर पुनः आचार्य कहते हैं तम्हा धम्माधम्मा गमणट्ठिदिकारणाणि णाकासं । इदि जिणवरेहि भणिदं लोगसहावं सुणंताणं ॥६५॥'-पंचास्ति । 'जिनवर भगवानने श्रोताजनोंको लोकका स्वभाव ऐसा ही बतलाया है । अतः धर्म और अधर्मद्रव्य ही गति और स्थितिके कारण हैं, आकाश नहीं।' आशय यह है कि एक ही आकाशके दो विभाग कायम रखने में प्रधान कारण धर्म और अधर्मद्रव्य हैं। इन दोनों
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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