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सिद्धान्त
१०३ लोकाकाशमें छहों द्रव्य पाये जाते हैं और अलोकाकाशमें केवल आकाशद्रव्य ही पाया जाता है। जैसा कि लिखा है
'जीवा पुग्गलकाया धम्माधम्मा य लोगदोणण्णा ।
तत्तो अणण्णमण्णं आयासं अंतवदिरित्तं ॥९१॥'-पंचास्ति । 'जीव, पुद्गल, धर्म और अधर्मद्रव्य लोकसे बाहर नहीं हैं । और आकाश उस लोकके अन्दर भी है और बाहर भी है, क्योंकि उसका अन्त नहीं है।'
सारांश यह है कि आकाश सर्वव्यापी है। उस आकाशके बीचमें लोकाकाश है, जो अकृत्रिम है-किसीका बनाया हुआ नहीं है। न उसका आदि है और न अन्त ही है। कटिके दोनों भागों पर दोनों हाथ रखकर और दोनों पैरोंको फैलाकर खड़े हुए पुरुषके समान लोकका आकार है। नीचेके भागमें सात नरक हैं । नाभि देशमें मनुष्यलोक है और ऊपरके भागमें स्वर्गलोक है। तथा मस्तक प्रदेशमें मोक्षस्थान है। चूंकि जीव शरीरपरिमाणवाला और स्वभावसे ही ऊपरको जानेवाला है अतः कर्मबन्धनसे मुक्त होते ही वह शरीरमेंसे निकलकर ऊपर चला जाता है और जाकर मोक्षस्थान में ठहर जाता है। उससे आगे वह जा नहीं सकता, क्योंकि गमनमें सहायक धर्मद्रव्य वहींतक पाया जाता है, उससे आगे नहीं पाया जाता। और उसकी सहायताके विना वह आगे जा नहीं सकता। इसीलिये जब कुछ दार्शनिकोंने जैनोंसे यह प्रश्न किया कि धर्म और अधर्म द्रव्यकी आवश्यकता ही क्या है, आकाश उनका भी कार्य कर लेगा तो उन्होंने उत्तर दिया'आगासं अवगासं गमणट्ठिदिकारणेहिं देदि जदि । उड्ढं गदिप्पधाणा सिद्धा चिट्ठति किध तत्थ ॥९२॥'-पंचास्ति । 'यदि आकाश अवगाहके साथ-साथ गमन और स्थितिका भी कारण हो जायेगा तो ऊर्ध्वगमन करनेवाले मुक्त जीव मोक्षस्थानमें कैसे ठहर सकेंगे।'