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________________ १५८ जैनधर्म इनका स्वभाव ही नश्वरता है, किन्तु मनुष्योंने उन्हें ही सुखका साधन मान रखा है | अर्थ और काममें जो जितनी उन्नति कर लेता है, जितनी अधिक संपत्ति, भोग-उपभोगके साधन, ऊँची अट्टालिकाएँ, सुन्दर सुन्दर गाड़ियाँ आदि जिसके पास हैं वह उतना ही अधिक सुखी माना जाता है, उसका उतना ही अधिक आदर होता है । और यह सब देखकर सब लोग, क्या मूर्ख और क्या विद्वान, क्या ग्रामीण और क्या शहरी, बालकसे बूढेतक अर्थ और कामके लिये ही शक्तिभर उद्योग करते हैं । यदि कोई धर्म में लगता भी हूँ तो अर्थ और कामके लिए ही लगता है । ऐसी स्थिति में यदि मनुष्य दुःखी न हों तो क्यों न हों ? फिर मनुष्योंकी यह अर्थलालसा और कामलालसा केवल उन्हें ही दुःखी नहीं करती बल्कि समाज और राष्ट्र भरको दुःखी बनाती हैं, क्योंकि जो मनुष्य स्वार्थवश धन कमाता है और उचित अनुचितका विचार नहीं करना वह दूसरोंके कष्टका कारण अवश्य होता है, साथ ही साथ यदि वह दूसरोंको कष्ट पहुँचाकर चोरी या छलसे अपनेको धनी बनाता है तो दूसरे चतुर मनुष्य उसका ही अनुकरण करके उसी रीति से धनवान बननेकी केष्टा करते हैं और इस तरह परस्पर में ही एक दूसरेके द्वारा सताया जाकर समाजका समाज दुःखी हो उठता है । यहीं बात कामभोग सम्बन्धमें भी है । अतः यदि धर्मके द्वारा अर्थ और कामकी मर्यादा रखी जाय तो वे सुखके साधन हो सकते हैं, परन्तु धर्मकी मर्यादाके बिना वे सुखकी अपेक्षा दुःख ही अधिक उत्पन्न करते हैं । अतः सुखके साथ धर्मका ही घनिष्ठ सम्बन्ध सिद्ध होता है और सुखके साधनोंमें धर्म ही प्रधान ठहरता है । तथा शास्त्रोंमें जो सुखका विचार किया गया हैं, उसपर दृष्टि डालने से तो यह बात और भी अधिक स्पष्ट हो जाती है । शास्त्रोंमें सुखको जीवका स्वभाव बतलाया है, क्योंकि सुख जीवके भीतर से ही प्रकट होता है, बाहर संसार में कहीं भी
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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