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________________ चारित्र १५७ उन्हें भी हम किसी न किसी दुःखसे पीड़ित पाते हैं। निर्धन धनके लिये छटपटाते हैं और धनवानोंको धनकी तृष्णा चैन नहीं लेनेदेती । निःसन्तान सन्तानके लिये रोते हैं तो सन्तानवाले सन्तान के भरणपोषण के लिये चिन्तित हैं। किसीका पुत्र मर जाता है. तो किसीकी पुत्री विधवा हो जाती है। कोई पत्नीके बिना दुःखी है तो कोई कुलटा पत्नीके कारण दुःखी है । सारांश यह है कि प्रत्येक मनुष्य किसी न किसी दुःखसे दुःखी है। और अपनी अपनी समझ के अनुसार उसे दूर करनेकी चेष्टा करता है, किन्तु फिर भी दुःखोंसे छुटकारा नहीं होता। सुम्बकी चाहको पूरा करनेके प्रयत्न में जीवन बीत जाता है किन्तु किसीकी चाह पूरी नहीं होती। आइये ! जरा इसके कारणोंपर विचार करें। सुखके साधन तीन हैं - धर्म, अर्थ और काम । इनमें भी धर्म ही सुखका मुख्य साधन है और बाकीके दोनों गौण हैं, क्योंकि शुभाचरणरूप धर्मके बिना प्रथम तो अर्थ और कामकी प्राप्ति ही असंभव है । जरा देरके लिये उसे संभव भी मान लिया जाये तो अधर्मपूर्ण साधनोंसे उपार्जन किया हुआ अर्थ और काम कभी सुखका कारण हो नहीं सकता, बल्कि दुःखोंका ही कारण होता है। इसके दृष्टान्तके लिये चोरीसे धन कमानेबालों और परस्त्रीगामियोंको उपस्थित किया जा सकता है। मोहवश इन कामों में बहुत से लोग प्रवृत्त हुए देखे जाते हैं, पर उन कामोंको स्वयं ही अच्छा नहीं बतलाते । और उस धन और कामभोगसे उन्हें कितना सुख मिलता है यह भी उनकी आत्मा ही जानती है । यथार्थमें अर्थ और कामसे तभी सुख हो सकता है जब उसमें सन्तोष हो । सन्तोषके बिना धन कमानेसे धनकी तृष्णा बढ़ती जाती है और तृष्णाकी ज्वालासं जलते हुए मनुष्योंको सुखका लेश भी नहीं मिल सकता। इसी प्रकार जो कामभोगकी तृष्णामें पड़कर कामभोगके साधन शरीर, इन्द्रिय वगैरहको जर्जर कर लेते हैं वे क्या कभी सुखी हो सकते हैं ? फिर अर्थ और काम सदा ठहरनेवाले नहीं हैं,
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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