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सिद्धान्त
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बौद्धोंका अन्यापोहवाद असदवक्तव्य और यौगका पदार्थवाद सदसदवक्तव्य कोटिमें गर्भित है । इस तरह सातों भंगोंका उपयोग हो जाता है ।
३. द्रव्य - व्यवस्था
जैनदर्शनके मूलतत्त्व अनेकान्तवाद और उसके फलितार्थ स्याद्वाद और सप्तभंगीवादका परिचय कराकर अब द्रव्यव्यवस्थाको बतलाते हैं ।
यद्यपि द्रव्यका लक्षण सत् है तथापि प्रकारान्तरसे गुण और पर्यायोंके समूह को भी द्रव्य कहते है । जैसे, जीव एक द्रव्य है, उसमें सुख ज्ञान आदि गुण पाये जाते हैं और नर नारकी आदि पर्यायें पाई जाती है किन्तु द्रव्यसे गुण और पर्यायकी पृथक सत्ता नहीं है । ऐसा नहीं है कि गुण पृथक हैं, पर्याय पृथक् हैं और उनके मेलसे द्रव्य बना है । किन्तु अनादिकालसे गुणपर्यायात्मक ही द्रव्य है । साधारण रीतिसे गुण नित्य होते हैं और पर्याय अनित्य होती हैं । अतः द्रव्यको नित्य-अनित्य कहा जाता है । जैनदर्शनमें सत्का लक्षण उत्पाद, व्यय और धौव्य माना गया है । अर्थात् जिसमें प्रति समय उत्पत्ति, विनाश और स्थिरता पाई जाती है वही सत् है । जैसे, मिट्टीसे घट बनाते समय मिट्टीकी पिण्डरूप पर्याय नष्ट होती है, घट पर्याय उत्पन्न होती है और मिट्टी कायम रहती है। ऐसा नहीं है कि पिण्ड पर्यायका नाश पृथक समय में होता है और घट पर्यायकी उत्पत्ति पृथकू समयमें होती है । किन्तु जो समय पहली पर्यायके नाशका है, वही समय आगेकी पर्यायके उत्पादका हैं । इस तरह प्रतिसमय पूर्व पर्यायका नाश और आगेकी पर्यायकी उत्पत्तिके होते हुए भी द्रव्य कायम रहता है अतः वस्तु प्रतिसमय उत्पाद व्यय और धौव्यात्मक कही जाती है ।
आशय यह है कि प्रत्येक वस्तु परिवर्तनशील हैं, और उसमें वह परिवर्तन प्रति समय होता रहता है । जैसे, एक बच्चा