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जैनधर्म कुछ समय बाद युवा हो जाता है और फिर कुछ काल के बाद बूढ़ा हो जाता है। बचपनसे युवापन और युवापनसे बुढ़ापा एकदम नहीं आ जाता, किन्तु प्रतिसमय बच्चे में जो परिवर्तन होता रहता है वही कुछ समय बाद युवापनके रूपमें दृष्टिगोचर होता है। प्रति समय होनेवाला परिवर्तन इतना सूक्ष्म है कि उसे हम देख सकने में असमर्थ हैं। इस परिवर्तनके होते हुए भी उस बच्चेमें एकरूपता बनी रहती है, जिसके कारण बड़ा हो जाने पर भी हम उसे पहचान लेते हैं। यदि ऐसा न मानकर द्रव्यको केवल नित्य ही मान लिया जाये तो उसमें किसी प्रकारका परिवर्तन नहीं हो सकेगा, और यदि केवल अनित्य ही मान लिया जाये तो आत्माके सर्वथा क्षणिक होनेसे पहले जाने हुएका म्मरण आदि व्यापार नहीं बन सकेगा। अतः प्रत्येक द्रव्य उत्पाद, विनाश और प्रौव्य स्वभाववाला है। चूंकि द्रव्यमें गुण ध्रुव होते हैं और पर्याय उत्पाद विनाशशील होती हैं; अतः गुणपर्यायात्मक कहो या उत्पाद व्यय ध्रौव्यात्मक कहो, दोनोंका एक ही अभिप्राय है। द्रव्यके इन दोनों लक्षणोंमें वास्तवमें कोई भेद नहीं है, किन्तु एक लक्षण दूसरे लक्षणका व्यञ्जकमात्र है।
द्रव्यका स्वरूप बतलाते हुए आचार्य कुन्दकुन्दने प्रवचनसारमें कहा है
'दवियदि गच्छदि ताई ताई सम्भावपज्जयाई जं । दवियं तं भण्णंते अणण्णभदं तु सत्तादो ॥९॥'
अर्थ-'द्र धातुसे, जिसका अर्थ जाना है, द्रव्य शब्द वना है। अतः जो अपनी उन उन पर्यायोंको प्राप्त करता है, उसे द्रव्य कहते हैं । वह द्रव्य सत्तासे अभिन्न है।' ___ इससे यह बतलाया है कि द्रव्य सत्स्वरूप है। और जैसे पर्यायोंका प्रवाह सतत् जारी रहता है, एकके पश्चात् दूसरी और दूसरीके पश्चात् तीसरी पर्याय होती रहती है, वैसे ही