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जैनधर्म है उतना किसी अन्य सिद्धान्तको नहीं। यहाँ तक कि शंकराचार्य भी इस दीपसे मुक्त नहीं हैं। उन्होंने भी इस सिद्धान्तके प्रति अन्याय किया। यह बात अल्पज्ञ पुरुषोंके लिए क्षम्य हो सकती थी। किन्तु यदि मुझे कहनेका अधिकार है तो मैं भारतके इस महान विद्वानके लिये तो अक्षम्य ही कहूँगा। यद्यपि मैं इस महर्षिको अतीव आदरकी दृष्टिसे देखता हूँ। ऐसा जान पड़ता है कि उन्होंने इस धर्मके दर्शनशास्त्रके मूलग्रन्थोंके अध्ययन करनेकी परवाह नहीं की।
ऐसी स्थितिमें भी जब हम किसी विद्वानको', उस विद्वानको जो कि अनेकान्तवादको संशयवादका रूपान्तर नहीं मानते और उसे जैनदर्शनकी बहुमूल्य देन स्वीकार करते हैं, यह लिखते हुए पाते हैं कि शंकराचार्यने स्याद्वादका मार्मिक खण्डन अपने शारीरिक भाष्यमें प्रबल युक्तियोंके द्वारा किया है तो हमें अचरज होता है, अस्तु ।
सप्तभंगीवादका विकास दार्शनिक क्षेत्रमें हुआ था, इसलिये उसका उपयोग भी वहीं हुआ। उपलब्ध जैनवाङमयमें दार्शनिक क्षेत्रमें सप्तभंगीवादको चरितार्थ करनेका श्रेय सर्वप्रथम स्वामी समन्तभद्रको ही प्राप्त है । उन्होंने अपनी आप्तमीमांसामें सांख्यको सदैकान्तवादी, माध्यमिकको असदैकान्तवादी, वैशेषिकको सदसदैकान्तवादी और बौद्धको अवक्तव्यैकान्तवादी बतलाकर मूल चार भंगोंका उपयोग किया और शेष तीन भंगोंका उपयोग करनेका संकेत मात्र कर दिया। उनके पश्चात् आममीमांसापर 'अष्टशी' नामक भाष्यके रचयिता श्रीअकलंकदेवने शेष तीन भंगीका उपयोग करके उस कमीको पूरा कर दिया। उनके मतसे शंकराचार्यका अनिर्वचनीयवाद सदवक्तव्य,
१. देखो-भारतीयदर्शन (पं०बल्देव उपाध्याय) पृ० १७७ । २. कारिका मं०९-२०। ३. अष्टसहस्री पृ० १३८-१४२