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________________ २२० जैनधर्म परिवर्तन और संशोधन अहिंसाके सिद्धान्तको जीवनपथके रूपमें स्वीकार करके किया जाना चाहिये। ___ यह नहीं भूल जाना चाहिये कि बलप्रयोगके आधारपर मानवीय सम्बन्धोंकी भित्ति कभी खड़ी नहीं की जा सकती। कौटुम्बिक और सामाजिक जीवनके निर्माणमें बहुत अंशों में सहानुभूति, दया, प्रेम, त्याग और सौहार्दका हो स्थान रहता है। एक बात यह भी स्मरण रखनी चाहिये कि व्यक्तिगत आचरणका और सामाजिक वातावरणका निकट सम्बन्ध है। व्यक्तिगत आचरणसे सामाजिक वातावरण बनता है और सामाजिक वातावरणसे व्यक्तित्वका निर्माण होता है। किसी समाजके अन्तर्गत व्यक्तियोंका आचरण यदि दूषित हो तो सामाजिक वातावरण कभी शुद्ध हो ही नहीं सकता, और सामाजिक वातावरणके शुद्ध हुए बिना व्यक्तियोंके आचरणमें सुधार होना शक्य नहीं । इसलिये व्यक्तिगत आचरणके सुधारके साथ-साथ सामाजिक वातावरणको भी स्वच्छ बनानेकी चेष्टा होनी चाहिये । इसीसे जैनधर्म प्रत्येक व्यक्तिके आचरण निर्माणपर जोर देते हुए उसके जीवनसे हिंसामूलक व्यवहारको निकालकर पारस्परिक व्यवहारमें मैत्री, प्रमोद और कारुण्यकी भावनासे बरतनेकी सलाह देता है। इतना ही नहीं, बल्कि वह तो यह भी चाहता है कि राजा भी ऐसा ही धार्मिक हो; क्योंकि राजनीतिमें अधार्मिकताके घुस जानेसे राष्ट्रभरका नैतिक जीवन गिर जाता है और फिर व्यक्ति यदि अनैतिकतासे बचना भी चाहे तो बच नहीं पाता, अनेक बाहिरी प्रलोभनों और आवश्यकताओंसे दबकर वह भी अनर्थ करनेके लिए तत्पर हो जाता है, जिसका उदाहरण युद्धकालमें प्रचलित चोरबाजार है। अतः राजनीति, समाजनीति और व्यक्तिगत जीवनका आधार यदि अहिंसाको बनाया जाये तो राजा और प्रजा दोनों सुख शान्तिसे रह सकते हैं। आज जिन देशोंमें प्रजातन्त्र है, उन देशोंमें यद्यपि अपनी
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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