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जैनधर्म
१३. सयोगकेवली - समस्त मोहनीय कर्मके नष्ट हो जानेपर बारहवाँ गुणस्थान होता है। मोहनीय कर्मके चले जानेसे शेष कर्मोंकी शक्ति क्षीण हो जाती है अतः बारहवें के अन्तमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीनों घातिया कर्मोंका नाश करके क्षीणकषाय मुनि सयोगकेवली हो जाता है । ज्ञानावरण कर्मके नष्ट हो जानेसे उसके केवलज्ञान प्रकट हो जाता है । वह ज्ञान पदार्थोंके जाननेमें इन्द्रिय, प्रकाश और मन वगैरहकी सहायता नहीं लेता इसीलिए उसे केवलज्ञान कहते हैं और उसके होनेके कारण इस गुणस्थानवाले केवली कहलाते हैं । ये केवली आत्माके शत्रु घाति कर्मोंको जीत लेनेके कारण जिन, परमात्मा, जीवन्मुक्त, अरहंत आदि नामोंसे पुकारे जाते हैं। जैन तीर्थकर इसी अवस्थाको प्राप्त करके जैनधर्मका प्रवर्तन करते हैं— जगह-जगह घूमकर प्राणिमात्रको उसके हित का मार्ग बतलाते हैं और इसी कार्य में अपने जीवनके शेष दिन बिताते हैं। जब आयु अन्तर्मुहूर्त - एक मुहूर्त से कम रह जाती है तो सब व्यापार बन्द करके ध्यानस्थ हो जाते हैं। जबतक केवलीके मन, वचन और कायका व्यापार रहता है तबतक वे सयोगकेवली कहलाते हैं ।
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१४. अयोगकेवली – जब केवली ध्यानस्थ होकर मन, वचन और कायका सब व्यापार बन्द कर देते हैं तब उन्हें अयोगकेवली कहते हैं । ये अयोगकेवली बाकी बचे हुए चार अघातिया कर्मोंको भी ध्यानरूपी अग्निके द्वारा भस्म करके समस्त कर्म और शरीरके बन्धन से छूटकर मोक्ष लाभ करते हैं ।
इस तरह संसार के सब जीव अपने-अपने आध्यात्मिक विकासके तारतम्यके कारण गुणस्थानों में बँटे हुए हैं। इनमें से शुरूके चार गुणस्थान तो नारकी, तिर्यन, मनुष्य और देव सभीके होते हैं । पाँचवाँ गुणस्थान केवल समझदार पशु पक्षियों और मनुष्योंके होता है। पाँचवेंसे आगेके सब गुणस्थान साधुजनोंके ही होते हैं। उनमें भी सातवें से बारहवें तकके गुणस्थान
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