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________________ चारित्र १६१ आगे कोई इच्छा उत्पन्न न हो यह संभव नहीं है । अतः फिर इच्छा उत्पन्न होनेसे फिर दुःखकी ही संभावना है । अतः प्रत्येक प्रकारको इच्छाका नियमन करना ही सुखका सच्चा उपाय है, न कि उसके अनुकूल पदार्थ जुटाकर उसकी तृप्ति करना। तृप्ति करनेसे तो इच्छा बढ़ती है और वह तृष्णाका रूप धारण कर लेती है। निष्कर्ष यह है कि सब सुख चाहते हैं, किन्तु दुःखोंका अभाव हुए बिना सुखकी प्रतीति नहीं हो सकती। अर्थ और कामसे जो सुख होता है वह सुख सुख नहीं हैं, किन्तु शारीरिक और मानसिक रोगांका प्रतीकारमात्र है। भ्रमसे लोगोंने उसे सुख समझ लिया है और सब उन्लीकी प्राप्तिके उपायों में लगे रहते हैं, नथा न्याय और अन्यायका विचार नहीं करते । इसीसे संसारमें दुःख है । हमारी अर्थ और कामकी अनियंत्रित वाञ्छा ही स्वयं हमारे और दूसरोंके दुःखका कारण बनी हुई है। यदि हम उसे धर्मके अंकुशसे नियंत्रित कर सकें-धर्म अविरुद्ध अर्थ और कामके सेवन करनेका व्रत लेलें तोहम स्वयं भी सुखी हो सकते हैं और दूसरे भी, जो कि हमारी अनियंत्रित अर्थतृष्णा और कामतृष्णाके शिकार बने हुए हैं, सुखी हो सकते हैं। इसीलिये धर्म उपादेय है । वह हमारी इच्छाओंका नियमन करके हमें सुखी ही नहीं, किन्तु पूर्ण सुखी बनाता है, क्योंकि जो सुख हमें इन्द्रियोंके द्वारा प्राप्त होता है, वह पराधीन है। जब तक हमें भोगनेके लिये रुचिकर पदार्थ नहीं मिलते तब तक वह होता ही नहीं, तथा उनके भोगने पर तत्काल सुख मालूम होता है किन्तु बादमें जब भोगकर छोड़ देते हैं तो पुन उनके विना विकलता होने लगती है। जैसे, भूख लगनेपर रुचिकर भोजन मिलनेसे सुख होता है, न मिलनेसे दुःख होता है । तथा एक बार भर पेट भोजन कर लेनेपर दूसरी बार फिर क्षुधा सताने लगती है और हम भोजनके लिये विकल हो उठते हैं । अतः इस प्रकारसे प्राप्त होनेवाला
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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