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विविध
छठीं शताब्दीके अनेक शिलालेखों में लिखा है कि कलचूरियोंने देशपर चढ़ाई करके चोल और पांड्य राजाओंको परास्त किया और अपना राज्य जमाया ।
राजा अमोघवर्ष
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यह राजा जैनधर्मका कट्टर अनुयायी था । इसकी प्रशस्तियोंमें लिखा है कि अंग, बंग, मगध, मालवा, चित्रकूट और वेडिं के राजा अमोघवर्षकी सेवामें रहते थे । वैङिके पूर्वी चालुक्योंसे इसका बराबर युद्ध होता रहा ।
वच्छावत सरदार
बच्छराजके नामसे यह वंश वच्छावत कहलाया । वच्छराज बड़ा ही धर्मात्मा था । उसने जैनधर्मकी प्रभावनाके लिए बहुत कुछ किया । इसके वंशमें बड़े-बड़े अनुभवी और शूर पैदा हुए जिन्होंने अपनी बुद्धि और कार्य कुशलतासे राज्यकार्यों और सैनिक कार्यों में प्रवीणता दिखलाई। ये जिस प्रकार कलमके धनी थे वैसे ही तलवार के भी धनी थे । उनमें वरसिंह और नागराज बड़े प्रसिद्ध वीर थे। वीरसिंह तो हाजी खाँ लोदीके साथ लड़ाई में मारा गया किन्तु नागराजसिंहने लूनखाँके समयमें हुए बलवेमें बड़ी वीरता दिखलाई ।
धनराज
जब १७८७ ई० में अजमेर के महाराजा विजयसिंहने अजमेरको मरहठोंसे पुनः जीत लिया तो धनराज सिंघीको, जो ओसवाल जैन थे, अजमेरका गवर्नर बनाया। चार सालके बाद मरहठोंने पुनः मारवाड़पर आक्रमण किया । इसी बीच मरहठा सरदारने अजमेरको भी चारों ओरसे घेर लिया । धनराजने अपनी छोटी-सी सेनासे शत्रुका सामना बड़ी वीरतासे किया किन्तु मरहठोंकी शक्ति देखकर विजयसिंहने धनराज - को आज्ञा दी कि अजमेर मरहठोंको सौंपकर जोधपुर चले आओ । धनराज न तो अपमानित होकर शत्रुको देश सौंपना