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________________ चारित्र २२९ कृत्रिम उपकरणोंकी आवश्यकता नहीं रहती। इसीलिए सिर और दाढ़ी मूछोंके केशोंको दूसरे, चौथे अथवा छठे महीनेमें वह अपने हाथसे उपार डालता है। साधुत्वकी दीक्षा लेते समय भी उसे केशोंका लुचन करना होता है। ऐसा करनेके कई कारण हैं-प्रथम तो ऐसा करनेसे जो सुखशील व्यक्ति हैं और किसी घरेलू कठिनाई या अन्य किसी कारणसे साधु बनना चाहते हैं वे जल्दी इस ओर अग्रसर नहीं होते और इस तरह पाखण्डियोंसे साधुसंघका बचाव हो जाता है। दूसरे, साधु होनेपर यदि केश रखते हैं तो उनमें जूं वगैरह पड़नेसे वे हिंसाके कारण बन जाते हैं और यदि मौरकर्म कराते हैं तो उसके लिए दूसरोंस पैसा वगैरह माँगना पड़ता है। अतः वैराग्य वगैरहकी वृद्धि के लिए यतिजनांको केशलोंच करना आवश्यक बतलाया है। __ लिंग चिह्नको कहते हैं। जिन लिंग या चिह्नांसे मुनिकी पहचान होती है वे मुनिके लिंग कहलाते हैं। लिंग दो प्रकारके होते हैं द्रव्यलिंग अर्थात् बाह्यचिह्न और भावलिंग अर्थात् अभ्यन्तर चिह्न । जनमुनिके ये दोनों चिह्न इस प्रकार बतलाये हैं "जधजादरूवजादं उप्पाडिदकसमंसुगं सुद्धं । रहिदं हिमादीदो अप्पडिकम्मं हदि लिंगं ॥५॥ मुच्छारम्भविमुक्कं जुत्तं उवजोगजोगमुद्धीहि । लिगं ण परावेखं अपुणभवकारणं जेण्हं ॥ ६ ॥-प्रवचनसा० ।। 'मनुष्य जैसा उत्पन्न होता है वैसा ही उसका रूप हो अर्थात् नग्न हो, सिर और दाढ़ी मूछोंके बाल उखाड़े हुए हों, समस्त बुरे कामोंस बचा हुआ हो, हिमा आदि पापांस रहित हो और अपने शरीरका सम्कार वगैरह न करता हो। यह सब तो जैन साधुके बाह्य चिह्न है । तथा ममत्व और आरम्भसे मुक्त हो, उपयोग और मन वचन कायकी शुद्धिसे युक्त हो, दूसरोंकी रंचमात्र भी अपेक्षा न रखता हो। ये सब आभ्यन्तर चिह्न हैं जो मोक्षके कारण हैं।'
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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