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जैनधर्म र्शनकी प्राप्ति होनेके साथ ही साथ जिसे सच्चा ज्ञान भी प्राप्त हो गया है, वह साधु राग और द्वेपको दूर करनेके लिए चारित्रका पालन करता है। (इस पर यह शंका होती है कि चारित्र तो हिंसा वगैरह पापोंसे बचनेके लिए पाला जाता है न कि रागद्वेषकी निवृत्तिके लिए; क्योंकि जैनधर्ममें अहिंसा ही आराध्य है । तो उसका समाधान करते हैं) राग और द्वेषके दूर हो जानेपर हिंसा वगैरह पाप तो स्वयं ही दूर हो जाते हैं। क्योंकि जिस मनुष्यको आजीविकाकी चिन्ता नहीं है वह राजाओंको सेवा करने क्यों जायेगा ? अतः जिसे किसीसे राग और द्वेष ही नहीं रहा वह हिंसा वगैरहके कार्य करेगा ही क्यों ? ___ अतः साधु बाहिरी समस्त बातोंसे इतना उदासीन हो जाता है कि वह किसीकी ओर अपेक्षावृत्तिसे ध्यान ही नहीं देता। जैनधर्ममें साधुको अत्यन्त 'निरीह वृत्तिवाला और अत्यन्त संयत बतलाया है, तथा इसीलिए उसकी आवश्यकताएँ अत्यन्त परिमित रखी गयी हैं। साधु होनेके लिए उसे सब वस्त्र उतारकर नग्न होना पड़ता है इससे एक ओर तो उसकी निर्विकारता स्पष्ट हो जाती है दूसरी ओर उसे अपनी नग्नताको ढाँकनेके लिए किसीसे याचना नहीं करना पड़ती। जो निर्विकार नहीं है वह कभी बुद्धिपूर्वक नग्न हो नहीं सकता। विकारको छिपानेके लिए ही मनुष्य लँगोटी लगाता है । और यदि लँगोटी फट जाये या खोई जाये तो उसे चलना फिरना कठिन हो जाता है। किन्तु बचपनमें वही मनुष्य नंगा घूमता है. उसे देखकर किसीको लज्जा नहीं होती, क्योंकि वह स्वयं निर्विकार है। जब उसमें विकार आने लगता है तभी वह नग्नतासे सकुचाने लगता है और उसे छिपानेके लिए आवरण लगाता है । प्रकृति तो सबको दिगम्बर ही पैदा करती है पीछेसे मनुष्य कृत्रिमताके आडम्बरमें फंस जाता है। अतः जो साधु होता है वह कृत्रिमताको हटाकर प्राकृतिक स्थितिमें आ जाता है। उसे फिर