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चारित्र
२२७ २६-दिनमें एक बार ही भोजन करते हैं। २७-नग्न रहते हैं। २८-केशलोंच करते हैं।
इन २८ मूलगुणोंका पालन प्रत्येक जैन साधु करता है। उसके ऊपर यदि कोई कष्ट आता है तो वह उससे विचलित नहीं होता । भूख प्यासको वेदनासे पीड़ित होनेपर भी किसीके आगे हाथ नहीं पसारता और न मुखपर दीनताके भाव ही लाता है। जैसे विदेशी सरकारसे असहयोग करनेवाले सत्याग्रही देशकी आजादीके लिए जेलमें डाल दिया जानेपर भी न किसीसे फर्याद करते थे और न कष्टोंसे ऊबकर माफी माँगते थे किन्तु अपने लक्ष्यकी पूर्तिमें ही तत्पर रहते थे उसी प्रकार जैन साधु सांसारिक बन्धनोंके कारणोंसे असहयोग करके कष्टोंसे न घबरा कर आत्माको मुक्तिके लिए सदा उद्योगशील रहता है। जो लोग उसे सताते हैं, दुःख देते हैं, अपशब्द कहते हैं, उनपर वह क्रोध नहीं करता । उसे किसीसे लड़ाई झगड़ा करनेका कोई प्रयोजन नहीं है वह तो अपने कर्तव्यमें मस्त रहता है। उसके लिए शत्रु-मित्र, महल-स्मशान, कंचन-काँच, निन्दास्तुति, सब समान हैं। यदि कोई उसकी पूजा करता है तो उसे भी वह आशीर्वाद देता है और यदि कोई उसपर तलवारसे वार करता है तो उसकी भी हितकामना करता है। उसे न किसीसे राग होता है और न किसीपर द्वेष । राग और द्वेषको दूर करनेके लिए ही तो वह साधुका आचरण पालता है। जैसा कि लिखा है
मोहतिमिरापहरणे दर्शनलाभादवाप्तसंज्ञानः । रागद्वेषनिवृत्य चरणं प्रतिपद्यते साधुः ॥ ४७ ॥ रागद्वेषनिवृत्ते हिंसादिनिवर्तना कृता भवति । अनपेक्षितार्थवृत्तिः कः पुरुषः सेवते नृपतीन् ॥४८॥-रत्नकर०या० अर्थात्-'मोहरूपी अन्धकारके दूर हो जाने पर सम्यग्द