SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 317
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सामाजिक रूप २६५ भी अन्त होता गया। पहले बस्तीमें जाते समय बहुधा कटिबन्धका उपयोग होता था। वह बस्तीमें बसनेके बाद निरन्तर होने लगा। धीरे-धीरे कटि वस्त्रका भी आकार प्रकार बदलता गया। पहले मात्र शरीरका गुह्य अंग ही ढकनेका विशेष ख्याल रहता था पर बादमें सपूर्ण नग्नता ढाँक लेनेकी जरूरत समझी गयी और इसके लिए वस्त्रका आकार प्रकार भी बदलना पड़ा।" उपधियोंकी संख्यामें जिस क्रमसे वृद्धि हुई उसे भी मुनि कल्याण विजयजीके ही शब्दोंमें पढ़ें___ "पहले प्रतिव्यक्ति एक ही पात्र रखा जाता था। पर आर्यरक्षित सूरिने वर्षाकालमें एक मात्रक नामक अन्य पात्र रखनेकी जो आज्ञा दे दी थी उसके फलस्वरूप आगे जाकर मात्रक भी एक अवश्य धारणीय उपकरण हो गया। इसी तरह झोलीमें भिक्षा लानेका रिवाज भी लगभग इसी समय चालू हुआ जिसके कारण पात्रनिमित्तक उपकरणोंकी वृद्धि हुई। परिणाम म्वरूप स्थविरोंके कुल १४ उपकरणोंकी वृद्धि हुई जो इस प्रकार है१ पात्र, २ पात्रबन्ध, ३ पात्र स्थापन, ४ पात्र प्रमानिका, ५ पटल, ६ रजत्राण, ७ गुच्छक, ८, ९ दो चादर, १० ऊनी वस्त्र (कम्बल), ११ रजोहरण, १२ मुखपट्टी, १३ मात्रक और १४ चोलपट्टक। यह उपधि औधिक अर्थात् सामान्य मानी गयी और आगे जाकर इसमें जो कुछ उपकरण बढ़ाये गये वे औपप्रहिक कहलाये। औपग्रहिक उपधिमें संस्तारक, उत्तरपट्टक, दंडासन और वंड ये खास उल्लेखनीय हैं। ये सब उपकरण आजकल के श्वेताम्बर जैन मुनि रखते हैं।" ___ एक ओर श्वेताम्बर सम्प्रदायमें इस तरह साधुओंकी उपधिमें वृद्धि होती गयी, दूसरी ओर आचारांगमें जो अचेलकताके प्रतिपादक उल्लेख थे उन्हें जिनकल्पीका आचार करार दे दिया गया और जिन कल्पका विच्छेद होनेकी घोषणा करके महा. १. श्रमण भगवान महावीर ।
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy