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________________ जैन कला और पुरातत्त्व २७५ पुदुकोटै राज्यमें राजधानीसे ९ मील उत्तर एक जैन गुफा मन्दिर है उसे सितन्नवासल कहते हैं। सितन्नवासल का प्राकृत रूप है सिद्धण्णबास – सिद्धोंका निवास । इसकी भीतोंपर पूर्व - पल्लव राजाओंकी शैलीके चित्र हैं, जो तमिल संस्कृति और साहित्यके महान् संरक्षक प्रसिद्ध कलाकार राजा महेन्द्रवर्मा प्रथम ( ६००-६२५ ई० ) के बनवाये हुए हैं और अत्यन्त सुन्दर होनेके साथ ही साथ सबसे प्राचीन जैन चित्र हैं । इसमें तो कोई सन्देह नहीं कि अजंताके सर्वोत्कृष्ट चित्रोंके साथ सितन्नवासलके चित्रोंकी तुलना करना अन्याय होगा । किन्तु ये चित्र भी भारतीय चित्रकलाके इतिहासमें गौरवपूर्ण स्थान रखते हैं । इनकी रचना शैली अजंताके भित्तिचित्रोंसे बहुत मिलती जुलती हैं। यहाँ अब दीवारों और छत पर सिर्फ दो चार चित्र ही कुछ अच्छी हालतमें बचे हैं। इनकी विशेषता यह है कि बहुत थोड़ी किन्तु स्थिर और दृढ़ रेखाओं में अत्यन्त सुन्दर आकृतियाँ बड़ी होशियारीके साथ लिख दी गयी हैं जो सजीव सी जान पड़ती हैं । गुफामें समवसरणकी सुन्दर रचना चित्रित है । सारी गुफा कमलोंसे अलंकृत है । खम्भोंपर नर्तकियोंके चित्र हैं। बरामदेकी छतके मध्यभागमें पुष्करिणीका चित्र है । जलमें पशुपक्षी जलविहार कर रहे हैं। चित्रके दाहिनी ओर तीन मनुष्याकृतियाँ आकर्षक और सुन्दर हैं । गुफामें पर्यक मुद्रामें स्थित पुरुष प्रमाण अत्यन्त सुन्दर पाँच तीर्थंकर मूर्तियाँ है जो मूर्तिविधान कलाकी अपेक्षासे भी उल्लेखनीय हैं। वास्तव में पल्लवकालीन चित्र भारतीय विद्वानोंके लिए अध्ययनकी वस्तु हैं । सितन्नवासलके बाद जैनधर्म से सम्बद्ध चित्रकला के उदाहरण दसवीं ग्यारहवीं शतीसे लगाकर पंद्रहवीं शताब्दी तक मिलते हैं। विद्वानोंका कहना है कि इस मध्यकालीन चित्रकलाके अवशेषेकेि लिए भारत जैन भण्डारोंका आभारी है; क्योंकि प्रथम तो इस कालमें प्रायः एक हजार वर्ष तक जैनधर्म का प्रभाव
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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