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सिद्धान्त लोयायासपदेसे एक्केक्के जे ट्ठिया हु एक्केक्का। रयणाणं रासिमिव ते कालाणु असंखदव्वाणि ॥-सर्वार्थ० पृ० १९१
'लोकाकाशके एक-एक प्रदेशपर रत्नोंकी राशिकी तरह जो एक-एक करके स्थित हैं, वे कालाणु हैं और वे असंख्यात द्रव्य हैं। अर्थात् प्रत्येक कालाणु एक-एक द्रव्य है जैसे कि पुद्गलका प्रत्येक परमाणु एक एक द्रव्य है।' __ प्रवचनसार आदि ग्रन्थोंमें इन कालाणुओंके सम्बन्धमें अनेक युक्तियाँके द्वारा अच्छा प्रकाश डाला गया है जो मनन करने योग्य है। ____ इस प्रकार जैनदर्शनमें ६ द्रव्य माने गये हैं। कालको छोड़कर शेष द्रव्योंको पश्चास्तिकाय कहते हैं। 'अस्तिकाय' में दो शब्द मिले हुए हैं एक 'अम्ति' और दूसग 'काय' । 'अस्ति' शब्दका अर्थ है' होता है जो कि अस्तित्व सूचक है, और कायशब्दका अर्थ होता है. 'शरीर' । अर्थात् जैसे शरीर बहुदेशो होता है वैसे ही कालके सिवा शेप पाँच द्रव्य भी बहुप्रदेशी हैं। इसलिये उन्हें अस्तिकाय कहते हैं। किन्तु कालद्रव्य अस्तिकाय नहीं है; क्योंकि उसके कालाणु असंख्य होनेपर भी परस्परमें सदा अबद्ध रहते हैं, न तो वे आकाशके प्रदेशोंकी तरह सदासे मिले हुए एक और अखण्ड हैं और न पुद्गल परमाणुओंकी तरह कभी मिलते और कभी विछुड़ते ही हैं। इसलिये वे 'काय' नहीं कहे जाते।
प्रदेशके सम्बन्धमें भी कुछ मोटी बातें जान लेनी चाहिये। जितने देशको एक पुद्गल परमाणु रोकता है उतने देशको प्रदेश हैं । लोकाकाशमें यदि क्रमवार एक-एक करके परमाणुओंको बराबर-बराबर सटाकर रखा जाये तो असंख्यात परमाणु समा सकते हैं. अतः लोकाकाश और उसमें व्याप्त धर्म और अधर्म द्रव्य असंख्यातप्रदेशी कहे जाते हैं। इसी तरह शरीरपरिमाण जीवद्रव्य भी यदि शरीरसे बाहर होकर फैले तो लोकाकाशमें व्याप्त हो सकता है अतः जीवद्रव्य भी असंख्यातप्रदेशी है।