________________
जैनधर्म
पुद्गलका परमाणु तो एक ही प्रदेशी हैं, किन्तु उन परमाणुओंके समूह से जो स्कन्ध बन जाते हैं वे संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेशी होते हैं । अतः पुद्गल द्रव्य भी बहुप्रदेशी है । इस तरह बहुप्रदेशी होनेसे पाँच द्रव्योंको पचास्तिकाय कहते हैं ।
१०८
६. यह विश्व और उसकी व्यवस्था
यह विश्व, जो हमारी आँखोंके सामने है और जिसमें हम निवास करते हैं, इन्हीं द्रव्योंसे बना हुआ है । 'बना हुआ' से मतलब यह नहीं लेना चाहिये कि किसीने अमुक समयमें इस विश्वकी रचना की है। यह विश्व तो अनादि-अनिधन है, न इसकी आदि ही है और न अन्त ही है, न कभी किसीने इसे बनाया है और न कभी इसका अन्त ही होता है । अनादिकालसे यह ऐसा ही चला आ रहा है और अनन्तकाल तक ऐसा ही चला जायेगा । रहा परिवर्तन, सो वह तो प्रत्येक वस्तुका स्वभाव है । सर्वथा नित्य तो कोई वस्तु है ही नहीं । हो भी नहीं सकती, क्योंकि वस्तुको सर्वथा नित्य माननेपर विश्व में जो वैचित्र्य दिखाई देता है वह संभव नहीं हो सकता । अतः परिवर्तनशील संसारकी मौलिक स्थितिमें कोई परिवर्तन न होते हुए विश्वकी व्यवस्था सदा जारी रहती है ।
किन्तु कुछ दार्शनिकों और जनसाधारणकी भी ऐसी धारणा है कि इस विश्वका कोई एक रचयिता अवश्य होना चाहिये, जिसकी आज्ञासे विश्वकी व्यवस्था सदा नियमित रीति से जारी रहती है। सृष्टिरचनाके सम्बन्ध में यों तो अनेक मान्यताएँ प्रचलित हैं किन्तु मोटेरूपसे उन्हें तीन भागों में रखा जा सकता है। एक विभागवाले तो यह मानते हैं कि एक परमेश्वर या ब्रह्म ही अनादि अनन्त है । जो एक ब्रह्मको ही अनादि अनन्त मानते हैं उनका कहना है कि ब्रह्मके सिवाय अन्य कुछ है ही नहीं । यह जो कुछ भी सृष्टि दिखाई दे रही है वह स्वप्नके