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________________ १३२ जैनधर्म उपदेश होता है, जिसे सुनकर उनका भ्रम दूर हो जाता है। हे देव ! तुम्हारे गुणोंका चिन्तन करनेसे अपने परायेका भेद मालूम हो जाता है । अर्थात् तुम्हारे आत्मिक गुणोंका विचार करनेसे मैं यह जान जाता हूँ कि आत्मा और शरीरमें तथा शरीरसे सम्बन्ध रखनेवाले कुटुम्बी जन धन-सम्पत्ति आदिमें कितना अन्तर है; क्योंकि तुम्हारी आत्मामें जो गुण हैं वैसे ही गुण मेरी आत्मामें भी मौजूद हैं मगर मैं उन्हें भूला हुआ हूँ। अतः तुम्हारे गुणोंका चिन्तन करनेसे मुझे अपने गुणोंका भान हो जाता है और उससे मैं 'स्व' और 'पर' पहचानने लगता हूँ, जिससे मैं अनेक आपदाओंसे-मुसीबतोंसे बच जाता हूँ। हे देव ! तुम संसारके भूषण हो; क्योंकि तुम सब दूषणों और संकल्प विकल्पोंसे मुक्त हो। तुम शुद्ध चैतन्यस्वरूप परमपावन परमात्मा हो। तुमने शुभ और अशुभरूप विभाव परिणतिका अभाव कर दिया है । हे धीर ! तुम अठारह दोषोंसे रहित हो और अपने अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्यरूप स्वचतुष्टयमें विराजमान हो। मुनि गणपति वगैरह तुम्हारी सेवा करते हैं। तुम नौ केवल लब्धिरूपी आध्यात्मिक लक्ष्मीसे सुशोभित हो । तुम्हारे उपदेशोंपर चलकर अगणित जीवोंने मुक्तिलाम किया है, करते हैं तथा सदा करेंगे। 'यह भवरूपी समुद्र दुःखरूपी खारे पानीसे पूर्ण है, इसे पार करानेमें आपके सिवा और कोई समर्थ नहीं है।, यह देखकर और 'मेरे दुःखरूपी रोग दूर करनेका इलाज तुम्हारे ही पास है' यह जानकर मैं तुम्हारी शरणमें आया हूँ और चिरकालसे मैंने जो दुःख उठाये हैं उन्हें बतलाता हूँ। मैं अपनेको भूलकर चिरकालसे इस संसारमें भटक रहा हूँ, मैंने विधिके खेल, पुण्य और पापको ही अपना समझा और अपनेको परका कर्ता मानकर तथा परमें इष्ट या अनिष्टकी कल्पना करके अज्ञानवश मैं व्याकुल हुआ हूँ जैसे मृग मारीचिकाको पानी समझ लेता है वैसे ही मैंने शरीरको
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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