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चारित्र
१९३ वे समझते हैं कि हम तो व्यापार करते हैं, चोरी नहीं करते । किन्तु चोरीका माल खरीदनेवाला भी चोर ही समझा जाता है, तभी तो ऐसा देन-लेन छिपकर होता है।
३-वाट तराजू गज वगैरह कमती या बढ़ती रखना। कमतीसे तोलकर दूसरोंको देना और बढ़तीसे तोलकर स्वयं लेना।
४-किसी वस्तुमें कम कीमतकी समान वस्तु मिलाकर बेचना। जैसे, धान्यमें मरा हुआ धान्य, घीमें चर्बी, हींगमें खैर, तेलमें मूत्र, खरे सोने चांदीमें मिलावटी सोना चांदी आदि मिलाकर बेचना। व्यापारी समझता है कि ऐसा करके मैं चोरी नहीं कर रहा हूँ यह तो व्यापारकी एक कला है, किन्तु उसका ऐसा समझना ठीक नहीं है, क्योंकि इम नरहके व्यवहारसे वह दूसरोंको ठगता है और ऐसा करना निन्दनीय है।
५-गज्यमें गड़बड़ उत्पन्न होनेपर वस्तुओंका मूल्य बढ़ा देना, जैसा युद्धके जमानेमें किया गया था। या एक राज्यके निवासीका छिपकर दूसरे गज्यमें प्रवेश करना और यहाँका माल वहाँ ले जाना या वहाँका माल यहाँ लाना। इसी तरह बेटिकिट यात्रा करना. चुंगी महसूल आयकर वगैरह छिपाना, इस तरहके कार्य चोरी ही समझे जाते हैं। अतः इनसे बचना चाहिये। ___ ऊपर जो बातें बनलाई गई हैं यद्यपि वे व्यापारको लेकर ही बतलाई गई हैं, किन्तु इसका यह मतलब नहीं है कि चोरीके काम व्यापारी ही करते हैं और राजा या उसके कर्मचारी नहीं करते । यदि वे भी राज्यमें चोरी करवाएँ, चोरीका माल खरीदें, चोरोंसे लाँच घूस वसूल करें, राजाकी ओरसे वस्तुओंकी खरीद होनेपर कमती बढ़ती हैं लें, और अपने राज्य या देशके विरुद्ध काम करें तो वे भी चोरीके दोपके भागीदार कहे जायेंगे।
वास्तवमें धन मनुष्यका प्राण है, अतः जो किसीका धन हरता है वह उसके प्राण हरता है। यह समझ कर किसीको किसीकी चोरी नहीं करनी चाहिये।