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जैनधर्म
सिद्धिविनिश्चय ग्रन्थपर बहुत ही विद्वत्तापूर्ण टीका लिखी है । वादिराजने अपने न्यायविनिश्चयविवरणमें इनकी बहुत प्रशंसा की है, और लिखा है कि इनके वचनामृतकी वृष्टिसे जगत्को खा जानेवाली शून्यवादरूपी अग्नि शान्त हो गयी ।
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वीरसेन ( ई० ७९०-८२५ )
आचार्य वीरसेन प्रसिद्ध सिद्धान्त ग्रन्थ षट्खण्डागम और कसायपाहुडके मर्मज्ञ थे । उन्होंने प्रथम प्रन्थपर ६२ हजार श्लोक प्रमाण प्राकृत- संस्कृत-मिश्रित धवला नामकी टीका लिखी है । और कसायपाहुड पर २० हजार श्लोक प्रमाण टीका लिखकर ही स्वर्गवासी हो गये। ये टीकाएँ जैनसिद्धान्त की गहन चर्चाओंसे परिपूर्ण हैं । धवलाकी प्रशस्तिमें उन्हें वैयाकरणोंका अधिपति, तार्किकचक्रवर्ती और 'प्रवादी रूपी गजोंके लिए सिंह' समान बतलाया है !
जिनसेन ( ई०८००-८८० )
यह वीरसेनके शिष्य थे। इन्होंने गुरुके स्वर्गवासी हो जाने पर जयधवला टीकाको पूरा किया। इन्होंने अपनेको 'अविद्धकर्ण' बतलाया है, जिससे प्रतीत होता है कि यह बालवयमें हो दीक्षित हो गये थे । यह बड़े कवि थे । इन्होंने अपने नवयौवनकालमें ही कालिदासके मेघदूतको लेकर पाश्वभ्युदय नामका सुन्दर काव्य रचा था । मेघदूतमें जितने भी पद्य हैं, उनके अन्तिम चरण तथा अन्य चरणोंमेंसे भी एक एक, दो दो करके इसके प्रत्येक पद्यमें समाविष्ठ कर लिये गये हैं । इनका एक दूसरा ग्रन्थ महापुराण है। इन्होंने तिरेसठ शलाका पुरुषोंका चरित्र लिखनेकी इच्छासे महापुराण लिखना प्रारम्भ किया । किन्तु इनका भी बीचमें ही स्वर्गवास हो गया । अतः उसे - इनके शिष्य गुणभद्राचार्यने पूर्ण किया। राजा अमोघवर्ष इनका शिष्य था और इन्हें बहुत मानता था ।