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जैनधर्म सकना है। जिसे गतदिन धनको चिन्ता सताती रहती है, रान दिन नये-नये कल कारखाने खोलकर धनसंग्रह करनेमें तत्पर रहता है और अपने कर्मचारियों और नौकरोंको कमसे कम देकर उनसे अधिकसे अधिक काम कराता है, न्याय और अन्यायका कनई विचार नहीं करता, वह क्या खाक अहिंसाको पाल सकता है ? अहिंमा सन्तापीक लिय है, असन्तोपो कभी अहिंसक हो नहीं सकता। गृहस्थका यह कर्तव्य बतलाया है कि वह अपने आश्रितों और यथाशक्ति अनाश्रितोंको भी पहले भोजन कराकर तब स्वयं भोजन करे । जो सन्तोषी होगा वही ऐसा कर सकता है । असन्तापी तो पहले अपना पेट ही नहीं, किन्तु अपने भण्डारको भरनेकी चिन्ता करेगा, उसकी दृष्टि में तो आश्रितोंकी चिन्ता करना ही बेकार है। वह समझता है कि मैंने मोलभाव करके उन्हें रखा है, हर महीने उन्हें उसके अनुसार वेतन दे दिया जाता है। उतनेमें उनका और उनके बालबच्चोंका पेट भरे या न भरे। इतनेमें यदि वे काम नहीं करना चाहते हों तो न करें हम दूसरे आदमी रख लेंगे । बाजारमें आदमियोंकी कमी नहीं है। ऐसे विचारवाला मनुष्य कोरा व्यापारी है किन्तु अहिंसक व्यापारी नहीं है। अहिंसक व्यापारी तो वह है जो अपनी ही तरह अपने आश्रितोंकी भी चिन्ता करता है और उनके ऊपर जो जुल्म न करके उन्हें समयपर भरपेट भोजन देता है और उतना ही काम लेता है जितना वे कर सकते हों। यह बात अपने आश्रित मनुष्यों और पशुओं दोनोंके सम्बन्धमें समानरूपसे लागू होती है। जैन शास्त्रकारोंने अहिंसा अणुव्रतके पाँच दीप बतलाये हैं और उनसे वचते रहनेकी ताकीद की है। वे दोष इस प्रकार हैं
१. बुरे इरादेसे मनुष्य और पशुओंको रस्सी वगैरहसे बाँधना । नौकर चाकरोंको तो गुस्सेमें आकर मालिक लोग बँधवा डालते हैं, किन्तु पालतू पशु तो विना बांधे रह नहीं