SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 387
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विविध निषत्कालमें वैदिक धर्मसे विरोध रखनेवाले दार्शनिकोंका सद्भाव पाया जाता है, किन्तु इसका यह मतलब नहीं है कि उपनिषत्कालसे पहले वैदिकधर्मका विरोध करनेवाले नहीं थे। किसी देशमें बाहरसे आकर बसनेवालों और फिर धीरे-धीरे उस देशपर अधिकार जमानेवालोंको प्रायः यह प्रवृत्ति होती है कि वे उस देशके आदिवासियोंको जंगली और अज्ञानी ही दिखानेका प्रयत्न करते हैं। ऐसा ही प्रारम्भमें अंग्रेजोंने किया और सम्भवतः ऐसा ही वैदिक आर्यों और उनके उत्तराधिकारियोंने किया है। वे अब भी इसी मान्यताको लेकर चलते है कि जैनधर्मका उद्गम बौद्धधर्मके साथ-साथ या उससे कुछ पहले उपनिषत्कालके बहुत बादमें उपनिषदोंकी शिक्षाके आधारपर हुआ । जब कि निश्चित रीतिसे प्रायः सभी इतिहासज्ञोंने यह स्वीकार कर लिया है कि जैनोंके २३वें तीर्थकर श्रीपार्श्वनाथ जो कि ८०० ई० पू० में उत्पन्न हुए थे एक ऐतिहासिक महापुरुष थे। किन्तु वे भी जैनधर्मके संस्थापक नहीं थे। सर राधाकृष्णन् अपने भारतीय दर्शनमें लिखते हैं"जैन परम्पराके अनुसार जैनधर्मके संस्थापक श्रीऋषभदेव थे जो कि शताब्दियों पहले हो गये हैं। इस बातका प्रमाण है कि ई० पू० प्रथम शताब्दीमें प्रथम तीर्थककर श्रीऋषभदेवकी पूजा होती थी। इसमें सन्देह नहीं है कि जैनधर्म वर्धमान या पार्श्वनाथसे भी पहले प्रचलित था । यजुर्वेदमें ऋषभदेव, अजितनाथ और अरिष्टनेमि इन तीन तीर्थरोंके नामोंका निदेश है । भागवतपुराण इस बातकी पुष्टि करता है कि ऋषभदेव जैनधर्मके संस्थापक थे।" ऐसी स्थितिमें उपनिषदोंकी शिक्षाको जैनधर्मका आधार बतलाना कैसे उचित कहा जा सकता है ? क्योंकि जिसे उपनिषद्काल कहा जाता है उस कालमें तो वाराणसी नगरीमें भग १. इन्डियन फिलासफी (सर एस. राधाकृष्णन्) भा० १, पृ०२८७ ।
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy