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जैनधर्म
लिये कुछ पवित्रताका उससे सम्बद्ध होना जरूरी था । अस्तु, ब्राह्मण साहित्यकी दृष्टिमें वैदिक ऋचाओंका धर्म केवल यज्ञ था । और मनुष्यका देवताओंके साथ केवल यांत्रिक सम्बन्ध था और वह था - 'इस हाथ दे उस हाथ ले ।'
जब हम आरण्यकोंकी ओर आते हैं, जिनके बारें में कहा जाता है कि वे वनवासियोंके लिये बनाये थे तो उनमें हमें यज्ञादि कर्मोंसे उत्पन्न होनेवाले फलके प्रति अश्रद्धाका । भाव दीख पड़ता है । ऐसा प्रतीत होता है कि कोरे कर्मसे लोगोंकी अभिरुचि हटने लगी थी और चूँकि यागादिकसे मिलनेवाला स्वर्ग स्थायी नहीं था अतः उसे आत्यन्तिक सुखका सम्पादक नहीं माना जा सकता था ।
जब हम उपनिषदोंकी ओर आते हैं तो हमें लगता है कि 'उपनिषदों की स्थिति वेदोंके अनुकूल नहीं है । युक्तिका अनुसरण करनेवाले उत्तरकालीन विचारकोंकी तरह वे वेदकी मान्यताके प्रति दुमुखी ढंग स्वीकार करते हैं। एक ओर वे वेदकी मौलिकताको स्वीकार करते हैं और दूसरी ओर वे कहते हैं कि वैदिक ज्ञान उस सत्य दैवी परिज्ञानसे बहुत ही न्यून है और हमें मुक्ति नहीं दिला सकता। नारद कहता है - 'मैं ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेदको जानता हूँ किन्तु इससे मैं केवल मंत्रों और शास्त्रोंको जानता हूँ-अपनेको नहीं जानता ।' माण्डूक्य उपनिषद में लिखा है - 'दो प्रकारकी विद्याएँ अवश्य जाननी चाहिये - एक ऊँची दूसरी नीची । नीची विद्या वह है जो वेदोंसे प्राप्त होती है किन्तु उच्च विद्या वह हूँ जिससे अविनाशी ब्रह्म प्राप्त होता है ।'
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वैदिक साहित्यके इस विवेचनसे यह स्पष्ट है कि वैदिक आर्य जब भारतवर्ष में आये तो उनका संघर्ष यहाँके आदिवासियोंसे हुआ । यद्यपि 'कठ उपनिषद्' (१-१ -२० ) से उप
१. इंडियन फिलासफी (सर एस० राधाकृष्णन् ) भा० १, पृ० १४६ ।