SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 253
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चारित्र २३१ पर कल्याण ही कर पाता है । इसलिए जैन साधु विधिपूर्वक दिये जानेपर ही भोजन ग्रहण करते हैं । अन्यथा लौट जाते हैं । भोजनशाला में जाकर वे खड़े हो जाते हैं और दोनों हाथों को धोकर अंजुलि बना लेते हैं। गृहस्थ उनकी बाएँ हाथकी हथेली पर ग्रास बनाकर रखता जाता है और वे उसे अच्छी तरहसे देख भालकर दायें हाथकी अंगुलियोंसे उठा उठाकर मुँह में रखते जाते हैं । यदि ग्रासमें कोइ जीव जन्तु या बाल दिखायी दे जाता है, तो भोजन छोड़ देते हैं। भोजनके बहुत से अन्तराय जैन शास्त्रों में बतलाये गये हैं । पहले लिख आये हैं कि भोजन केवल जीवनके लिए किया जाता है और जीवन रक्षणका उद्देश्य केवल धर्मसाधन है । अतः जहाँ थोड़ीसी भी धर्ममें बाधा आती है भोजनको तुरन्त छोड़ देते हैं। हाथमें भोजन करना भी इसलिये बतलाया है कि यदि अन्तराय हो जाये तो बहुतसा झूठा अन्न छोड़ना न पड़े, क्योंकि थाली में भोजन करनेसे अन्तराय हो जानेपर भरी हुई थाली भी छोड़नी पड़ सकती है। दूसरे, पात्र हाथमें लेकर भोजनके लिए निकलनेसे दीनता भी मालूम होती है। गृहस्थके पात्र में खानेसे पात्रको माँजने धोनेका झगड़ा रहता है, तथा पात्रमें खानेसे बैठकर खाना होगा, जो साधुके लिये उचित नहीं है, क्योंकि बैठकर खानेसे साधु आरामसे अमर्यादित आहार कर सकता हैं तथा सुखशील बन सकता है । अतः खड़े होकर आहार करना ही उसके लिए विधेय रखा गया है । साधुको अपना अधिकांश समय स्वाध्यायमें ही बिताना होता है । स्वाध्यायके चार काल बतलाये हैं- प्रातः दो घड़ी दिन बीतनेपर स्वाध्याय प्रारम्भ करना चाहिये और मध्याह्न होनेसे दो घड़ी पहले समाप्त कर देना चाहिये। फिर मध्याह्नके बाद दो घड़ी बीतनेपर स्वाध्याय प्रारम्भ करना चाहिये और जब दिन अस्त होने में दो घड़ी काल बाकी रहे तो समाप्त कर देना चाहिये । फिर दो घड़ी रात बीत जानेपर स्वाध्याय प्रारम्भ
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy