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________________ चारित्र १६३ कर्मोंके संयोगसे उत्पन्न हुए बाकी सभी पदार्थ बाह्य हैंमुझसे भिन्न हैं मेरे नहीं हैं ।' जब तक हम उन वस्तुओंसे, जो हमें हमारे शुभाशुभ कर्मोंके फलस्वरूप प्राप्त होती हैं, ममत्व नहीं त्यागेंगे, तबतक हम अपने छुटकारेका प्रयत्न नहीं कर सकेंगे । और करेंगे भी तो वह हमारा प्रयत्न सफल नहीं होगा, क्योंकि जबतक हमें यही मालूम नहीं हैं कि हम क्या हैं और जिनके बीच में हम रहते हैं उनके साथ हमारा क्या सम्बन्ध है तबतक हम किससे किसका छुटकारा करा सकेंगे ? जैसे, जिसे सोनेकी और उसमें मिले हुए खोट की पहचान नहीं है कि यह सोना है और यह मेल है, वह खानसे निकले हुए पिण्डमेंसे सोनेको शोधकर नहीं निकाल सकता । सोनेको शोधकर निकालनेके लिये उसे सोने और मैलका ज्ञान तथा यही सोना है और यही मैल है ऐसा दृढ़ विश्वास न होनेपर वह किसी दूसरेके बहकावमें आकर मैलको सोना और सोनेको मैल समझकर भ्रम में भी पड़ सकता है। वैसे ही आत्मशोधकको भी अपनी आत्मा, उसकी खराबियाँ, उन खराबियोंके कारण और उनसे छुटकारा पानेके उपायोंका भली भाँति ज्ञान होनेके साथ ही साथ अपने उस ज्ञानकी सत्यतापर दृढ़ आस्था भी अवश्य होनी चाहिये | यह आस्था ही सम्यग्दर्शन है | छुटकारेका प्रयत्न करनेसे पहले इसका होना नितान्त आवश्यक है । जो कुछ सन्देह वगैरह हो उसे पहले ही दूर कर लेना चाहिये । जब वह दूर हो जाये और पहले कहे गये सात तत्त्वोंकी दृढ़ प्रतीति हो जाये तब फिर मुक्ति के मार्ग में पैर बढाना चाहिये और फिर उससे पीछे पैर नहीं हटाना चाहिये, जैसा कि कहा है विपरीताभिनिवेशं निरस्य सम्यग्व्यवस्य निजतत्त्वम् । यत्तस्मादविचलनं स एव पुरुषार्थसिद्धयुपायोऽयम् ॥ १५॥” - पुरुषार्थ० । 'शरीरको ही आत्मा मान लेनेका जो मिथ्याभाव हो रहा है,
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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