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जैनधर्म
उसे दूर करके आत्मतत्त्वको अच्छी तरह जानकर, उससे विचलित न होना ही परमपुरुषार्थ मुक्तिकी प्राप्तिका उपाय है ।' अतः मुक्तिके लिये उक्त सात तत्त्वोंपर दृढ़ आस्थाका होना सम्यग्दर्शन है और उनका ठीक-ठीक ज्ञान होना ही सम्यज्ञान है । ये दोनों ही आगे बढ़नेकी भूमिका हैं, इनके बिना मुक्ति के लिये प्रयत्न करना व्यर्थ है । जिस जीवको इस प्रकारका दृढ़ श्रद्धान और ज्ञान हो जाता है उसे सम्यग्दृष्टि कहते हैं अर्थात् उसकी दृष्टि ठीक मानी जाती है। अब यदि वह आगे बढ़ेगा तो धोखा नहीं खा सकेगा । जबतक मनुष्यकी दृष्टि ठीक नहीं होती - उसे अपने हिताहितका ज्ञान नहीं होता तबतक वह अपने हितकर मार्गपर आगे नहीं बढ़ सकता । अतः प्रारम्भ में ही उसकी दृष्टिका ठीक होना आवश्यक है । इसीलिये सम्यग्दर्शनको मोक्षके मार्ग में कर्णधार बतलाया है। जैसे नावको ठीक दिशामें ले जाना खेनेवालोंके हाथमें नहीं होता, किन्तु नाव के पीछे लगे हुए डाँडका सचालन करनेवाले मनुष्यके हाथमें होता है । वह उसे जिधरको घुमाता हैं उधरको ही नावकी गति हो जाती है । यही बात सम्यग्दर्शनके विषय में भी जानना चाहिये । इसीसे जैनसिद्धान्त में सम्यग्दर्शनका बहुत महत्त्व बतलाया है । इसके हुए बिना न कोई ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहलाता है और न कोई चारित्र सम्यक् चारित्र कहलाता हैं, अतः मोक्षके उपासककी दृष्टिका सम्यक् होना बहुत जरूरी है, उसके रहते हुए मुमुक्षु लक्ष्य भ्रष्ट नहीं हो सकता ।
इस सम्यग्दर्शनके आठ अंग हैं। जैसे शरीर में आठ अंग होते हैं, उनके बिना शरीर नहीं बनता, वैसे ही इन आठ अंगों के बिना सम्यग्दर्शन भी नहीं बनता । सबसे प्रथम जिस सत्य मार्गका उसने अवलम्बन किया है उसके सम्बन्धमें उसे निःशंक होना चाहिये। जबतक उसे यह शंका लगी हुई है कि यह मार्ग ठीक है या गलत, उसकी आस्था दृढ़ कैसे कही जा सकती है ? ऐसी अवस्थामें आगे बढ़नेपर भी उसका लक्ष्यतक