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चारित्र
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पहुँचना सम्भव नहीं है । अतः उस अपनेपर अपने गन्तव्य पथपर और अपने मार्गद्रष्टापर अविचल विश्वास होना चाहिये । दूसरे उसे किसी भी प्रकारके लौकिक सुखोंकी इच्छा नहीं करना चाहिये - बिल्कुल निष्काम होकर काम करना चाहिये, क्योंकि कामना और वह भी स्त्री, पुत्र, धन वगैरहकी, मनुष्यको लक्ष्यभ्रष्ट कर देती है | इच्छाका दास कभी आगे बढ़ ही नहीं सकता । जैसे कोई आदमी अपने देशको स्वतंत्र करनेके मार्गको अपनाता है और यह कामना रखकर अपनाता है कि इस मार्गको अपनानेसे मेरी ख्याति होगी, प्रतिष्ठा होगी, मुझे कौंसिल में मेम्बरी मिलेगी । यदि ये चीजें उसे मिल जाती हैं। तो वह फिर इनको ही अपना लक्ष्य मानकर उनमें ही रम जाता है और देशकी स्वतंत्रताको भूल बैठता है । यदि ये चीजें नहीं मिलती और उल्टी यातना सहनी पड़ती है तो वह लोगोंको भला-बुरा कहकर उस मार्गको छोड़ ही बैठता है । वैसे ही सांसारिक सुखकी कामना रखकर इस मार्गपर चलना भी लक्ष्य भ्रष्ट कर देता है । अतः निरीह होकर रहना ही ठीक है । तीसरे, रोगी, दुःखी और दरिद्रीको देखकर उससे ग्लानि नहीं करनी चाहिये, क्योंकि ये सब जीवोंके अपने अपने किये हुए पुण्य पापका खेल है । आज जो अमीर है कल वह दरिद्र हो सकता है। आज जो नीरोग है कल वह रोगी हो सकता है । अतः मनुष्यके वैभव और शरीरकी गन्दगीपर दृष्टि न देकर उसके गुणोंपर दृष्टि देनी चाहिये । चौथे, उसे कुमार्गकी और कुमार्गपर चलनेवालोंकी कभी भी सराहना नहीं करनी चाहिये, क्योंकि इससे कुमार्गको प्रोत्साहन मिलता है । तथा उसमें इतना विवेक और दृढ़ताका होना जरूरी है कि यदि कोई उसे सन्मार्ग से च्युत करनेका प्रयत्न करे तो उसकी बातों में न आ सके । पाँचवें, उसे अपने में गुणोंको बढ़ाते रहनेका प्रयत्न करते रहना चाहिये और दूसरोंके दोषोंको ढाँकनेका प्रयत्न करना चाहिये । तथा अज्ञानी और असमर्थ जनोंके द्वारा यदि