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सिद्धान्त
१४७ यदि ईश्वरको फलदाता माना जाता है तो जहाँ एक मनुष्य दूसरे मनुष्यका घात करता है वहाँ घातकको पापका भागी नहीं होना चाहिये क्योंकि उस घातकके द्वारा ईश्वर मरनेवाले कोड दिलाता है । जैसे, राजा जिन पुरुपोंके द्वारा अपराधियोको दण्ड दिलाना है वे पुरुष अपराधी नहीं कह जाते; क्योंकि वे राजाज्ञाका पालन करते हैं। उसी तरह किसीका घात करनेवाला घानक भी जिसका घात करना है उसके पूर्वकृत कर्मोका फल भुगताता है; क्योंकि ईश्वरने उसके पूर्वकृत कर्मोकी यही सजा नियन की होगी भी ना उसका वध किया गया। यदि कहा जाय कि मनुष्य कम करने में स्वतंत्र है अतः घातकका कार्य ईश्वरप्रेरित नहीं है, किन्तु घातककी स्वतंत्र इच्छाका परिणाम है । तो इसका उत्तर यह है कि संसारदशामें कोई भी प्राणी वास्तव में स्वतंत्र नहीं है, मभी अपने अपने कमांसे बंधे हैं और कर्मके अमुसार ही प्राणीकी बुद्धि हानी है। शायद कहा जाये कि ऐसी दशामें तो कोई भी व्यक्ति मुक्तिलाभ नहीं कर सकता; क्योंकि जीव कर्मसे बँधा है और कर्मक अनुसार जीवकी बुद्धि होती है। किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि का अच्छ भी होते हैं और बुरे भी होते हैं । अतः अच्छे कर्मके अनुसार उत्पन्न हुई बुद्धि मनुष्यको सन्मार्गकी ओर ले जाती है और बुरे कर्मके अनुसार उत्पन्न हुई बुद्धि मनुष्यको कुमार्गकी आर ले जाती है । सन्मार्गपर चलने से मुक्तिलाभ और कुमार्गपर चलनेस संसारलाभ होता है। अतः बुद्धिके कर्मानुसार होनेसे मुक्तिकी प्राप्तिमें कोई बाधा नहीं आती।।
इस तरह जब जीव कर्म करनेमें स्वतंत्र नहीं है तो घातकका घानरूपकर्म उसकी दुर्बुद्धिका ही परिणाम कहा जायेगा। और वुद्धिको दुष्टना उसके किसी पूर्वकृत कर्मका फल कही जायेगी। ऐसी स्थितिमें यदि हम कर्मफलदाता ईश्वरको मानते है तो उस घातककी दुष्ट बुद्धिका कर्ता ईश्वरका ही कहा जायेगा। इसपर हमारी विचारशक्ति कहती है कि एक विचारशील फल