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________________ सिद्धान्त १३५ या पूजक उन जैन तीर्थङ्करोंके उपदेशों और उनके जीवनवृत्तोंको नहीं जान सकता जिनकी मूर्तिको वह पूजता है। और उनके जाने बिना मृर्तिसे उसे जिस आदर्शकी शिक्षा मिलनी है उस आदर्शको वह प्राप्त नहीं कर सकता। क्योंकि मूर्ति तो मनुष्यके उन आदर्शकी ओर संकेनमात्र करती है, केवल वही उसे उच्च आदर्श प्राप्त नहीं करा सकती। जैसे, जब बालक वर्णमाला सीखता है तो उसका हाथ साधनक लिये पट्टीपर पंसिलसे वर्णमालाके आँवटे लिख दिये जाते हैं । बच्चा उन आँवटोंपर ही अपनी कलम चलाता है। जबतक उसका हाथ नहीं सधता और वह इस योग्य नहीं हो जाता कि विना आंवटोंके भी स्वयं अक्षर लिख सके, तबतक उस वावर आंवटोंका सहारा लेना पड़ता है। किन्तु जब उसका हाथ सध जाता है तब आंवटोंकी जरूरत नहीं रहती और वह बिना किसी सहारके स्वयं लिखने लग जाता है। उसी तरह मृतिके साहाय्यकी भी तभी तक जरूरत रहती है जब तक दानका दृष्टिकोण अपने आदर्शकी ओर पूरी नरहस नहीं होना । जब दाक अपने आदर्श की ओर अग्रसर होकर उसीकी माधनामें लग जाना है. और इस तरह उस पथका साधक बन जाना है तब उसके लिये मूनिका दर्शन करना आवश्यक नहीं रहता । ____अतः जैनांकी मूर्तिपूजा उस आदर्शकी पूजा है जो प्राणिमात्रका सर्वोच्च लक्ष है । उसके द्वारा पृजकको अपने आदर्शका भान होता है, उसे वह भुला नहीं सकता। प्रतिदिन प्रातःकाल अन्य सब कार्य करनेसे पहले मन्दिर में जाना इनीलिये अनिवार्य रखा गया है कि मनुष्य अर्थ और कामकं पचड़में पड़कर अपने उस सर्वोच्च लक्षको भूल न जाये । तथा जिन महापुरुषांने उस सर्वोच्च लक्षको प्राप्त कर लिया है उनका गुणानुवाद करके उनके प्रति अपनी श्रद्धाञ्जलि अर्पित कर सके और झान्ति तथा विरागताके उस दर्पणमें अपनी कलुपित आत्माका प्रतिविम्ब देखकर उसके परिमार्जन करनेका प्रयत्न कर सके ।
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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