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जैनधर्म ऐसे सर्वोच्च लक्षका भान करानेके लिये निर्मित जैन-मन्दिरों के बारेमें जब हम एक पुरानी उक्ति सुनते हैं
'हस्तिना ताडघमानोऽपि न गच्छेद् जैनमन्दिरम्' अर्थात्-'हाथीके द्वारा मारे जानेपर भी जैन मन्दिरमें नहीं जाना चाहिये ।'
तो हमें बड़ा अचरज होता है। तत्कालीन माम्प्रदायिक मनोवृत्तिके सिवा इसका कोई दूसरा कारण हमारे दृष्टिगोचर नहीं होता। अस्तु,
हम पहले लिख आये हैं कि जैनमूर्ति निरावरण और निराभरण होती है । जो लोग सवस्त्र और सालङ्कार मूर्तिको उपासना करते हैं उन्हें शायद नग्नमूर्ति अश्लील प्रतीत होती है । इस सम्बन्धमें हम अपनी ओरसे कुछ न लिखकर सुप्रसिद्ध साहित्यिक काका कालेलकरके वे उद्गार यहाँ अंकित करते हैं जो उन्होंने श्रवणवेलगोला (मैसूर ) में स्थित बाहुबलिकी प्रशान्त किन्तु नग्नमूर्तिको देखकर अपने एक लेखमें व्यक्त किये थे । वे लिखते हैं
'सांसारिक शिष्टाचारमें आसक्त हम इस मूर्तिको देखते ही मनमें विचार करते हैं कि यह मूर्ति नग्न है। हम मनमें और समाजमें भाँति भाँतिकी मैली वस्तुओंका संग्रह करते हैं, परन्तु हमें उससे नहीं होती है घृणा और नहीं आती है लज्जा । परन्तु नग्नता देखकर घबराते हैं और नग्नतामें अश्लीलताका अनुभव करते हैं । इसमें सदाचारका द्रोह है और यह लज्जास्पद है। अपनी नग्नताको छिपानेके लिये लोगोंने आत्महत्या भी की है। परन्तु क्या नग्नता वस्तुतः अभद्र है ? वास्तवमें श्रीविहीन है ? ऐसा होता तो प्रकृतिको भी इसकी लज्जा आती। पुष्प नग्न रहते हैं, पशु पक्षी नग्न ही रहते हैं। प्रकृतिके साथ जिन्होंने एकता नहीं खोई है ऐसे बालक भी नग्न ही घूमते हैं । उनको इसकी शरम नहीं आती और उनकी निर्व्याजताके कारण हमें भी इसमें लज्जा जैसा कुछ प्रतीत नहीं होता। लज्जाकी बात